तेवरी में नपुंसक आक्रोश
+बी.एल. प्रवीण
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इन दिनों ग़ज़ल को
लेकर जो बहस के मुद्दे सामने आए हैं, और ग़ज़ल के खिलाफ जो कुछ भी कहा जा
रहा है, वह न केवल गैर जिम्मेदाराना है बल्कि कहने वालों के कथन में शे’रो-शायरी
से दूर से भी जान-पहचान नहीं लगती। ग़ज़ल को पारिभाषिक दृष्टि से देखें तो इसमें
हुस्नोइश्क के अलावा नैतिकता, दार्शनिकता, धार्मिकता, एकता, राष्ट्रीयता,
अध्यात्मिकता आदि विषयक ख्यालोतजुर्बे जमाने से मिलते हैं | मसलन,
गालिब, मीर, दर्द,
शाद, हसरत, फानी, जिगर, जोश, फैल, साहिर, कैफी, आजमी, अली सरदार जाफरी, वगैर,बगैरह।
तेवरी वह खुला मैदान है, जहां न कोई बन्दिश है न घेराव,
पागलों की तरह चीखना चिल्लाना है जहां बास्ट की घुटन है जिसमें मौत
के लिए जगह तो है। लेकिन जिन्दगी की शहनाइयों के लिए कोई उम्मीद नहीं है। कुछ और
लोगों की ग़ज़ल के बारे में क्या राय है, वह भी तेवरी वालों को
जान लेनी चाहिए। मिसाल के तौर पर नरेन्द्र वशिष्ट-‘अभिव्यक्ति की दृष्टि से ग़ज़ल
अपने आप में सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का माध्यम है निजी भी और सामाजिक भी’। शिव ओम
अम्बर के अनुसार आज की गजल किसी शोख नाजनीन की हथेली पर अंकित मेंहदी की दंत कथा
नहीं, युवा आक्रोश की मुट्ठी में थी हुई प्रलयंकारी मशाल है,
वह रनवासों की स्त्रिायों से प्राप्त की गई किसी रसिक की रसवार्ता
नहीं बल्कि भाषा के भोजपत्र पर विप्लव की अग्निऋचा है’।
अतः यह मान लेने
की बात है,
ग़ज़ल, शिल्प, कथ्य,
कलात्मकता, वैचारिक प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से
जितनी शीरी है। उतनी ही तल्ख भी, जो सम-सामयिकता वक्त और
हालात से गहरे रूप में जुड़ी है।
इसके विरूद्ध गजल
बयानी दरअसल शातिराना चालें है, तेवरी नपुंसक आक्रोश की तरह है,
चिल्लाहट, बौखलाहट में स्वयं को स्थापित करने
की साजिश की बू है, और कुछ भी नहीं!
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