Monday, July 11, 2016

तेवरी किसी नाकाम आशिक की आह नहीं +ज्ञानेन्द्र साज

तेवरी किसी नाकाम आशिक की आह नहीं

+ज्ञानेन्द्र साज
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    सुविख्यात तेवरीकार दर्शन बेज़ार की नवीनतम कृति ये ज़ंजीरें कब टूटेंगीउनकी सुलिखित, सुचयनित 48 धारदार तेवरियों का बेहतरीन संग्रह है। तेवरीशीर्षक विधा को साहित्य में स्थापित करने के लिए तीन दशक से एक धीमा मगर पुख्ता संघर्ष होता रहा है। आज नहीं तो कल देश के सभी ग़ज़लकार भी इसे एक विधा के रूप में स्वीकारेंगे, मुझे यह पक्का यकीन है। इस संघर्ष में मेरे अनुज रमेशराज बराबर संघर्ष करते रहे हैं।
    ग़ज़लकार ये ज़ंजीरें कब टूटेंगीको पढ़कर इसे ग़ज़ल संग्रह ही कहेंगे, यह कोई नयी बात नहीं होगी। उन्हें भाई दर्शनजी की तेवरियों में कहीं भी आक्रोशमय प्रस्तुति नजर नहीं आयेगी। वह तो उन्हें रदीफ, काफिया, बज्न, बह्र जैसी मान्यताओं पर ही कसेंगे। मैं इस पुस्तक के माध्यम से यह अवश्य कहना चाहूंगा कि वे सच को स्वीकारने की हिम्मत दिखायें।
    आज देश में जो घोटाले और भ्रष्टाचार पोषित राजनीति पनप रही है वह समाज को क्या दे रही है, भ्रष्टाचार और घोटाले ही न? तो फिर समाज प्रदूषित क्यों नहीं होगा। आज वही प्रदूषण राष्ट्र और समाज की सबसे छोटी इकाई यानी हम और आप को भी अपनी चपेट में ले चुका है। आज के दौर में हम और आप भी दूध के धुले नहीं हैं।
    ग़ज़ल का कथ्य कभी भी आक्रोशित नहीं रहा, उसका अपना निश्चित दायरा ही रहा जो प्रेमी-प्रेमिका से मिलन-विछोह की टीस या खुशी और साक़ी, शराब, मयख़ाना के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। ग़ज़ल इस रूप में बहुत प्यारी विधा है, मगर तेवरी कभी इस तरह का वातावरण में रहना पसंद नहीं करती. उसे तो आमजन की रोजी-रोटी की फिक्र है, उसे आदमी के नंगे बदन के लिए कपड़ों की फिक्र है, उसे खाली हाथों को काम दिलाने की फिक्र है, उसे निर्बल को दबंगों से बचाने की फिक्र है, उसे हर तरफ मच रही लूट की चिंता है। उसे सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही महंगाई से गरीबों को बचाने की चिंता है। तेवरी किसी नाकाम आशिक की आह नहीं, वरन् उस आदमी की व्यथा है जिसका शासन और प्रशासन द्वारा हर स्तर पर शोषण हो रहा है।
    आइये, अब ऐसी विश्व और राष्ट्रव्यापी समस्याओं पर चर्चा करती बेज़ार के तेवरी-संग्रह ये जं़जीरें कब टूटेंगीकी तेवरियों पर भी दृष्टिपात कर लिया जाए-
हंगामा हर चैराहे पर दहशत में सारा अवाम है।
    क्या यह सच नहीं है सारे देश में यही हाल है। त्राहि-त्राहि मच रही है। मनुष्य चौराहों पर जाम लगा रहा है, कभी बिजली के लिए तो कभी टूटी सड़क को ठीक कराने के लिए। कभी महंगाई के विरोध में तो कभी दुर्घटना में मृत किसी व्यक्ति के लिए। ये सब क्या हो रहा है? दबंग, गुण्डे, दहशतगर्द शासन और प्रशासन की ही सरपरस्ती में पनपने वाले उन लोगों के विशेषण हैं जो समाज को जौंक की तरह खा रहे हैं/खोखला कर रहे हैं। उनकी खिलाफत करने का मतलब अपनी जान से हाथ धोना है। प्रतीकों के माध्यम से यही बताता यह तेवर भी देखें-
इस तरह डूबे परिन्दे खौफ में सैयाद के
जिंदगी जैसे कि उनकी दी हुई जागीर है।
    बेतहाशा पानी के दोहन को लेकर उठ रही विश्वव्यापी समस्या पानी की होती जा रही कमी को लेकर भी तेवरीकार चुप नहीं बैठा, वह धरती मां से ही प्रश्न करता है और उत्तर भी देता है-
सूखे ताल-तलैया रीती गागर, खाली डोल
कब तक ये विद्रूप रहेगा धरती माता कुछ तो बोल?
चुरा ले गये सब हरियाली मौसम के ये काले चोर
कहां गठरिया किसने बांधी कोई नहीं रहा मुंह खोल।
    प्यार-मुहब्बत में भी जब कोई विसंगति उत्पन्न हो जाती है जो फिर वो प्यार नहीं रह जाता, उसमें भी एक आक्रोश रुपी व्यथा पैदा हो जाती है। मैं बेजारजी के शब्दों में ही एक पति से दूर गांव में बैठी पत्नी के प्यार की व्यथा का चित्र दिखा रहा हूं-
पाती नहीं तुम्हारी आयी अब घर जल्दी आ जाओ
खर्च हो चुका पाई-पाई अब घर जल्दी आ जाओ।
छोटी बिटिया हफ्रतों से स्कूल नहीं जा पायी है
उसकी फीस नहीं भर पायी अब घर जल्दी आ जाओ।
                          या
उनके हिस्से में कुटिया का बस छोटा-सा कोना है
दादा-दादी क्या कर लेंगे जब बंटवारा होना है।
हर बेटे की अलग-अलग मति अलग-अलग सबकी राहें
कई जलेंगे घर में चूल्हे इसी बात का रोना है।
    अब कोई यह बताए कि पारिवारिक प्यार की टूटती कड़ी को देख कौन आक्रोशित नहीं होगा? यह आक्रोश ही तेवरी के रूप में उपजता है। तेवरीकार मात्र समस्याओं की ओर ही उंगली नहीं उठाता, वह तो उसका हल भी बताता है, मगर समाज उसकी बात को ग्रहण कर ले तभी तो इंकलाब की उम्मीद की जा सकती है-
          सींखचों को देखकर तू हो न यूं भयभीत रे,
आग उगले लेखनी कुछ इस तरह रच गीत रे।
वक्त रुकने का नहीं है साथियो! चलते रहो
वक्ष पर अन्याय के तुम मूंग नित दलते रहो।
                 अथवा
तू अपनी खुद की हिफाजत में लग जा
जमाने से खुलकर बगावत में लग जा।
कसम है तुझे आज बहते लहू की
हर एक जुल्म की तू खिलाफत में लग जा।
    समस्या उठाना और उसका समाधान भी देना हर तेवरीकार की सोच का उम्दा नमूना है। यह बात बेज़ारजी की इस प्रकाशित पुस्तक ही नहीं उनके पूर्व तेवरी संग्रहों एक प्रहार लगातार’, ‘देश खण्डित न हो जायेमें भी बोलती है। उनकी हर तेवरी आक्रोश का दस्तावेज है।
    मैं अपनी ओर से उनके इस संग्रह पर उन्हें हृदय से साधुवाद देता हूं तथा भविष्य में उनसे और भी बेहतर तेवरियों के साथ आने की प्रतीक्षा भी कर रहा हूं। वे दीर्घायु हों, मेरा शुभाशीष उनके साथ है। वे अलख जगाए रहें...

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