Tuesday, July 19, 2016

तेवरी और ग़ज़ल, अलग-अलग नहीं +कैलाश पचौरी

तेवरी और ग़ज़ल, अलग-अलग नहीं

+कैलाश पचौरी
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मैंने आपके सम्पादन में प्रकाशित तेवरीपक्षके कुछ अंक देखे हैं और उनके बावत पाठकीय प्रतिक्रिया से भी अवगत होता रहा हूँ । मसलन एक आम प्रतिक्रिया यह रही कि आपने यह तेवरीनाम ही क्यों चुना है। मैं भी सोच रहा था कि आपको एक पत्र लिखूं और मालूम करूँ कि इसके पीछे आपनी सही मंशा क्या है, लेकिन वैसा हो नहीं पाया।
जहां तक पत्रिका के नामकरण का प्रश्न है यदि इसका नाम नये तेवररक्खा जाता तो क्या बुरा था। क्योंकि गजल को चर्चित और प्रतिष्ठत होने के लिये जिन तेवरों की दरकार थी वे तो पूर्व में ही सर्व श्री दुष्यन्त कुमार, महेश अनध, भवानी शंकर, शहरयार, आशुफ्ता चंगेजी आदि द्वारा दिये जा चुके हैं। लेकिन नाम परिवर्तन जैसी जरूरत उन्होंने भी महसूस नहीं की। उसमें एक नया क्रिएट करते हुए अपने डिक्शन को माडरेट करने की कोशिश अलबत्ता जारी रखी। बात को थोड़ा स्पष्ट किया जाये तो ग़ज़ल की भाषा का रंग और उसका ट्रेडीशनल स्ट्रक्चर कायम रखते हुए भी इन लोगों ने कथ्य की जमीन पर बहुत कुछ अपनी ओर से जोड़ना चाहा और वे इसमें कामयाब भी हुए। बुनियादी ढांचे में रद्दोबदल किये बिना नाम परिवर्तन मेरे विचार से एक बहुत ही भौतिक किस्म की घटना है। जो स्पष्टतः व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का संदेह लोगों के मन में उत्पन्न कर सकती है जबकि भले आपके इरादे वैसे न हों।
आपने अपने पर्चे में लिखा है कि तेवरी का ग़ज़ल से न तो कोई साम्य है और न विरोध ही। आपका यह कथन भी पूरी तरह बेवाक तथा सच नहीं है। यह बिल्कुल वैसा ही है कि नीरज कहें कि उनकी गीतिकाउर्दू ग़ज़ल से भिन्न है जबकि उनकी ग़ज़लों [या गीतिकाओं] की टैक्नीक पूर्णतः उर्दू टैक्नीक ही है। फिर भी हिन्दी पत्रिकाओं में अपना  वैशिष्ट्य [बिल्कुल अनावश्यक] कायम करने की वजह से उन्हें गीतिकालिख दिया गया। तेवरी-पक्ष की अधिकांश रचनायें भी बेसीकली गजल के फार्म में ही हैं। कमोवेश उनका लहजा भी वही है। उन्हें दोबारा पढ़ते हुए भी यह समझ में नहीं आता कि उन्हें उर्दू गजल से किन आधारभूत बिन्दुओं के संदर्भ में अलग किया जा सकता है। यह सम्भव है कि तेवरी-पक्षकी गजलें ज्यादा सशक्त, सटीक एवं मारक हों। उसमें निष्ठावान रचनाकारों का ही चयन किया गया हो। लेकिन सिर्फ इस वजह पर ही तो हम उन्हें एक नई विधा [बकौल तेवरी-पक्ष] का उद्गम नहीं मान सकते।
ग़ज़लका जहाँ तक सम्बन्ध है, मैं यह मानता हूँ कि मूलतः यह उर्दू का छंद है, ठीक वैसे ही जैसे हम कहें कि दोहा हिन्दी का छंद है। पाकिस्तान की उर्दू शायरी में इन दिनों दोहे खासतौर पर लिखे जा रहे हैं। और सूक्ष्म जाँचपड़ताल करने पर उनमें खालिस हिन्दी रंग अलग से देखा जा सकता है। यह एक दिलचस्प पहलू है कि भारत के उर्दू शायर हिन्दी शब्दों  का प्रयोग करने पर आमतौर से कतराते हैं [जबकि हिन्दी कविता में उर्दू शब्दों की भरमार है] लेकिन पाकिस्तान की उर्दू शायरी में भाषाई विभेद किये बिना हिन्दी शब्दों का उपयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। यह बात  अनेक उदाहरण देकर सिद्ध की जा सकती है। ठीक ऐसे ही जब हिन्दी रचनाकार ग़ज़ल  लिखता है तब हजार कोशिशों के बाद भी उर्दू रंग छूटता नहीं। किसी को भी देख लीजिए आप, चाहे वे बलवीर सिंह रंग, बाल स्वरूप राही, दुष्यन्त कुमार हों या गोपाल दास नीरज। बरसों लिखने तथा छपने के बाद भी हिन्दी ग़ज़लजैसी  कोई प्रतिष्ठावान विधा की सरंचना नहीं कर पाये।
यह माना जा सकता है कि ग़ज़लउर्दू शायरी पर एक लम्बे अर्से तक छायी रही है और कमोवेश आज भी छाई हुई है, यह बात अलग है कि सृजनात्मक लेखन के दृष्टिकोण से अब उसका महत्व नहीं रह गया है। इन दिनों नज्म जहाँ ग़ज़ल पर भारी पड़ती है। साहिर की गालिब की मजार परतथा ताज महलजैसी नज्मों से गुजरते हुए यह स्मरण भी नहीं रहता कि उन्होंने ग़ज़लें भी लिखी हैं। गुलजार, अमृता प्रीतम, सरदार जाफरी, कैफी आजमी की नज्मों ने उर्दू शायरी की आधुनिकता बनाये रखी है। वर्ना आप बतलाइये कि उर्दू की नयी पीढ़ी में कोई ऐसा भी ग़ज़लकार है जिसे जिगर, जौक और मोमिन जैसी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि मिली हो?
समकालीन भारतीय साहित्यके पिछले अंक में बशीर बद्र की कुछ ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं। आप जानते हैं कि बशीर बद्र का नाम उर्दू के आधुनिक ग़ज़लकारों में सिम्बालिक इम्पार्टेन्स का है। सोचा था गजलों में कोई गैरमामूली बात होगी लेकिन पढ़ते हुए लगा कि वही आम शिकायत उनके यहाँ भी मौजूद है | दस ग़ज़लों में से आठ यूं ही-दो उल्लेखनीय। फिर दो में भी ऐसा नहीं कि ग़ज़ल के सभी शेर एक से वजन के हों। तीन शेर बहुत ऊंचे तो दो फुसफुसे। आपको यह मानना होगा कि ग्राफ का यह उतार चढ़ाव ही ग़ज़ल के प्रति एक अजीब सी वितृष्णा भर देता है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे ग़ज़लों पर सृजनात्मक कार्य नहीं कर रहे हैं। ग़ज़ल संग्रह [शीघ्र प्रकाश्य] नया विकल्पमें प्रकाशित उनकी एक प्रसिद्ध ग़ज़ल का एक  शे’र कोट कर रहा हूं। आप देखिये सामंती [दरबारी] संस्कृति पर इसमें कितनी करारी चोट की गई है।
अपना भारत भवन देख कर भील बस्तर का यूं कह गया
आप रहते हैं भोपाल में, यह हमारा ठिकाना नहीं
आप रहते हैं भोपाल मेंपंक्ति का व्यंग्य तथा यह हमारा ठिकाना नहीं’ के पीछे जो लयात्मक संवेदनशीलता छुपी हुई है दरअसल वही रचना को एक जीवंत ऊर्जा प्रदान करती है। जहाँ तक मुझे स्मरण है- मैंने सबसे पहले आपकी गजलें कथाबिम्ब में पढ़ी थीं और मैं हो नहीं बल्कि अनेक पाठक उनसे प्रभावित हुए थे। इसी तरह दिल्ली से प्रकाशित एक महिला पत्रिका रमणीमें तीन शेरों वाली आपकी एक छोटी सी ग़ज़ल पढ़ी थी और उसे पढ़कर मैं गहरे तक अभिभूत हुआ था। तीन छंदों में वह बात पैदा कर दी गई थी जो किसी दूसरे कवि द्वारा तीस छंदों में भी नहीं हो पाती। कथ्य इतना साफ सुथरा और बेबाक होकर उतरा था कि कुछ पूछिए ही मत। शलभ श्री राम सिंह की गजलें भी उतनी ही पैनी और बेवाक लगी। खासतौर से कथनमें प्रकाशित उनकी चार गजलें जिन पर व्यापक पाठकीय प्रतिक्रिया हुई। उनके ग़ज़ल संग्रह राहे ह्यातकी गजलों के तेवर भी काफी तीखे हैं, लेकिन लहजा चूंकि मुकम्मल तौर पर उर्दू शैली का है अतः उसमें कहीं से भी हिन्दीपनका अहसास नहीं होता। या यूं कहें कि हिन्दी के सृजनात्मक लेखन से जोड़ने का कोई ठोस अथवा वायवीय औचित्य प्रमाणित नहीं होता।
 अपने पर्चे में अपने सोच के दायरे में जिन मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहा है वे वाम पंथी घोषणा पत्रों  में सैकड़ों बार रिपीट हो चुके हें। हर जागरूक लेखक  [जिसके लेखन की प्रासंगिकता कायम है] चाहता है कि शोषण के दुर्ग को ढहा दिया जाये। मुखौटे नोच लिये जायें, सामाजिक ऐतबार से घातक और विघटनकारी प्रवृत्तियों पर तेजी से हमला किया जाये। इन्सान को बेहतर तथा जागरुक बनाने की दिशा में कारगर पहल होनी ही चाहिये। ये तमाम बिन्दु हमारे लेखन को अनिवार्यतः रेखांकित करें ऐसे प्रयास तेज और तेजतर रफ्तार में जारी रहने चाहिये।

बहरहाल अच्छा लेखन [अच्छे लेखन से तात्पर्य उसे लेखन से है जो पिष्टपेषण की प्रवृत्ति से दूर होकर मानवीय मूल्यों तथा संवेदना की जमीन पर अपनी जड़ें फैलात है] सामने आये। लेकिन वह एक खास मीटर तथा लहजे तक ही सीमित न रहे। बात तभी बन सकती है, जब उसका कान्टेन्ट ब्रांड हो। मेरी धारणा है कि निष्ठावान प्रतिभाएँ कुछ भी लिखें उसमें उनका रंग तो बोलता ही है और यही उनकी सृजनात्मकता की सही पहचान भी है। दरअसल सृजनात्मकता की शर्ते इतनी कठोर हैं कि केवल नाम परिवर्तनसे ही उस जमीन पर प्रतिष्ठत हुआ जा सके, यह मुश्किल दिखाई देता है। फिर भी आपके सदाशयी तथा कर्मठ प्रयासों के लिये अपने बधाई देना चाहता हूँ कयोंकि आपके भीतर मुझे वह सृजनात्मक ऊष्मा महसूस होती है जो उस जमीन पर पहुंचने के लिये बेहद जरूरी है जिसका उल्लेख अभी-अभी मैंने किया हैः बहरहाल...।

Thursday, July 14, 2016

तेवरी में नपुंसक आक्रोश +बी.एल. प्रवीण

तेवरी में नपुंसक आक्रोश

+बी.एल. प्रवीण
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इन दिनों ग़ज़ल को लेकर जो बहस के मुद्दे सामने आए हैं, और ग़ज़ल के खिलाफ जो कुछ भी कहा जा रहा है, वह न केवल गैर जिम्मेदाराना है बल्कि कहने वालों के कथन में शे’रो-शायरी से दूर से भी जान-पहचान नहीं लगती। ग़ज़ल को पारिभाषिक दृष्टि से देखें तो इसमें हुस्नोइश्क के अलावा नैतिकता, दार्शनिकता, धार्मिकता, एकता, राष्ट्रीयता, अध्यात्मिकता आदि विषयक ख्यालोतजुर्बे जमाने से मिलते हैं | मसलन, गालिब, मीर, दर्द, शाद, हसरत, फानी, जिगर, जोश, फैल, साहिर, कैफी, आजमी, अली सरदार जाफरी, वगैर,बगैरह। तेवरी वह खुला मैदान है, जहां न कोई बन्दिश है न घेराव, पागलों की तरह चीखना चिल्लाना है जहां बास्ट की घुटन है जिसमें मौत के लिए जगह तो है। लेकिन जिन्दगी की शहनाइयों के लिए कोई उम्मीद नहीं है। कुछ और लोगों की ग़ज़ल के बारे में क्या राय है, वह भी तेवरी वालों को जान लेनी चाहिए। मिसाल के तौर पर नरेन्द्र वशिष्ट-‘अभिव्यक्ति की दृष्टि से ग़ज़ल अपने आप में सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का माध्यम है निजी भी और सामाजिक भी’। शिव ओम अम्बर के अनुसार आज की गजल किसी शोख नाजनीन की हथेली पर अंकित मेंहदी की दंत कथा नहीं, युवा आक्रोश की मुट्ठी में थी हुई प्रलयंकारी मशाल है, वह रनवासों की स्त्रिायों से प्राप्त की गई किसी रसिक की रसवार्ता नहीं बल्कि भाषा के भोजपत्र पर विप्लव की अग्निऋचा है’।
अतः यह मान लेने की बात है, ग़ज़ल, शिल्प, कथ्य, कलात्मकता, वैचारिक प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से जितनी शीरी है। उतनी ही तल्ख भी, जो सम-सामयिकता वक्त और हालात से गहरे रूप में जुड़ी है।

इसके विरूद्ध गजल बयानी दरअसल शातिराना चालें है, तेवरी नपुंसक आक्रोश की तरह है, चिल्लाहट, बौखलाहट में स्वयं को स्थापित करने की साजिश की बू है, और कुछ भी नहीं!

‘तेवरी’ ग़ज़ल का एक उग्रवादी रूप +सतीशराज पुष्करणा

तेवरी ग़ज़ल का एक उग्रवादी रूप  

+सतीशराज पुष्करणा
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सुपरब्लेज के मार्च-85 अंक के ‘बहस’ शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत रमेशराज द्वारा प्रस्तुत प्रतिक्रियात्मक आलेख ग़ज़ल-ग़ज़ल है, तेवरी-तेवरी’ पढ़कर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे यहां भी खालिस्तान की मांग की तरह पृथकतावादी का हाथ खड़ा किया जा रहा हो।  यह तय है कि ग़ज़ल एक पुरानी विधा है जिसका अभिप्राय प्रातः माशूका के लिए ही लिखे जाने से रहा है। यह बात दिगर है कि आज परिस्थितियों के समानान्तर ग़ज़ल के कथ्य में कुछ विशेष किस्म का तेवर महसूस किया जा रहा है। तथापि दायरे वही हैं | इसी बदलते हुए तेवर को देखकर तथाकथित इसके पक्षधर लोग इसे तेवरी शीर्षक देकर एक अलग पहचान बनाने की कोशिश में लिप्त दिखाई पड़ रहे हैं।
परन्तु मेरी समझ से, अगर ग़ज़ल का तेवर बदला है तो इससे ग़ज़ल के अस्तित्व पर कोई खतरा उपस्थित नहीं हुआ है? तेवरी शब्द किसी भी भावनात्मक स्थिति को दर्शाता है न कि किसी भावना-विशेष के एक पक्ष को। यानी मासूका के प्रति लिखी गई ग़ज़ल में भी एक खास तेवर है। इसी प्रकार तथाकथित जेहादी किस्म के उस विचार वाले अथवा समाकालीन स्थितियों के विरूपित करने वाले सद्दश काव्य रूपों में भी हम एक प्रकार का तेवर पाते हैं। श्री रमेश राज के अनुसार शांति शीर्षक से क्रांति की बात नहीं की जानी चाहिए। दूसरी तरफ वे वह भी कहते है कि विरहाग्नि में जलती हुए प्रेमिका के चेहरे पर सूर्य की प्रखरता [ क्रांति के प्रतीक ] अथवा प्रकाश पिंड की चमक देखी जा सकती है। यानी दूसरी पंक्ति में वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि मासूका की विरहाग्नि में लिखी गई गजल में तेवर की मधुरता उग्र-सी हो सकती है।
जैसाकि कहानी, लघुकथा, परीकथा, दंतकथा, संदर्भ कथा, आदि के वर्गीकरण के आधार के बावजूद ये सब कहानी हैं । रचना के कथ्य, विस्तार और संप्रेषणीयता आदि को मद्देनजर रखते हुए तेवरीभी ग़ज़ल का एक उग्रवादी रूप ही है।


ग़ज़ल सिर्फ ग़ज़ल है तेवरी नहीं! +तारिक असलम तस्नीम

ग़ज़ल सिर्फ ग़ज़ल है तेवरी नहीं!

+तारिक असलम तस्नीम
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सुपरब्लेज के बहस-स्तम्भ में भाई रमेशराज के विचार पढ़कर लगा कि उन्हें शायद बेवजह की थोथी बहस करने की आदत-सी है। वे ग़ज़ल  के कुछ बदले हुए रूप को तेवरीकी संज्ञा देने पर उतारू हैं। बात समझने की है कि आदिमानव भी आदमी ही था आज भी आदमी ही कहलाता है और सदैव वह आदमी ही कहलाता रहेगा। अब यदि कोई रमेश जी-सा व्यक्ति आदमी के बदले हुए रूप को यदि कोई अन्य संज्ञा देने पर उतारू हो जाए तो सिवा उसकी अपाहिज महत्वाकांक्षा पर तरस खाने के अलावा उसको क्या कहा जा सकता है?

वर्तमान में गजल न तो प्रेमी-प्रेमिका के बात-चीत के अर्थ में है और न ही हिरन के मुंह से निकली कराह है। प्रातः वन्दनीय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के कथनानुसार, साहित्य समाज का दर्पण है। अतः साहित्य की सभी विधाएं भी इस कथन की अनुगामी हैं। वर्तमान में काव्य की सभी उपविधाएं, अन्य विधाएं एवं अनुविधाएं वर्तमान की स्थितियों एवं परिस्थितियों से पूर्णरूपेण प्रभावित हैं। उसी प्रकार ग़ज़ल ने भी अपने तेवर समय के अनुरूप बदले हैं और अब वह कथ्य के आधार पर नहीं बल्कि प्रारूपमात्र है। अतः उसे तेवरीया इसी प्रकार की कोई भी संज्ञा देना ठीक वैसे ही है- जैसे वर्तमान में आदमी को आदमी न कहकर कुछ और कहना।

तेवरी : व्यवस्था की रीढ़ पर प्रहार +ओमप्रकाश गुप्त ‘मधुर’

तेवरी : व्यवस्था की रीढ़ पर प्रहार

+ओमप्रकाश गुप्त मधुर
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तेवरी-आन्दोलन’, कुछ प्रकाशन, एक समीक्षा
आलोच्य-
1-कबीर जिंदा है- सम्पादक- रमेशराज
2-इतिहास घायल है- सम्पादक- रमेशराज
3-एक प्रहार, लगातार-लेखकः दर्शन बेजार
4-अभी जुबां कटी नहीं- सम्पादक-रमेशराज
5-तेवरीपक्ष, अंक-3, सम्पादक-रमेशराज
आन्दोलन के संदर्भ राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक या साहित्यक हों, उसकी मौलिक चेतना विद्रोहात्मक और स्वर तिक्त तथा उग्र हुआ करता है। किसी व्यवस्था के बोझ-तले कसमसाते हुए बहुतेरे लोग परिवर्तन की प्रतीति से अपने तेवर उभार लेते हैं और अपने वैयक्तिक तथा सामूहिक प्रहार से व्यवस्था पर निरंतर चोट करते रहते हैं। यह सही है उनमें से अनेक किसी सर्जनात्मक सोच से अनुप्राणित नहीं होते हैं। बस पुरातन के विरुद्ध जेहाद करना ही उनका अभिप्रेत होता है। परन्तु युग-परिवर्तन की प्रक्रिया में उनका भी योगदान कुछ कम करके आंकना अनुचित होगा क्योंकि जब तक कुछ लोग पुराने को तोड़कर मलवा हटाने का प्रारंभिक कार्य नहीं करेंगे तब तक तामीर के शिल्पकारों को हाथ पर हाथ धरकर बैठना ही पड़ेगा।
अतः तेवरी आन्दोलन की अलख जगाने वाले अलीगढ़ के युवा साहित्यकार निश्चय ही एक स्तुत्य और श्लाघनीय कवि-कर्म में प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं। इनमें से कुछ लोग व्यवस्था की रीढ़ पर प्रहार करते हुए उसे गिराने में सन्नद्ध हैं तो दूसरे तेवरीकार नई दिशाओं में मंजर पेश करने में पूरी ईमानदारी से लगे हुए हैं।
तेवरीनामकरण अजीबोगरीब-सा लगता है क्योंकि उर्दू-लुगत या शब्दकोष में तेवरशब्द का तो अस्तित्व है तेवरीका नहीं। तेवरीकारों के फतवे या घोषित मैनीफैस्टोमें यह स्वीकार किया गया है कि उर्दू-काव्य में ग़ज़ल की सरसता, रूमानियत और जेहनियत से प्रभावित होकर स्व. दुष्यंत कुमार ने हिंदी-कविता में ग़ज़ल लिखने की पहल की।
आपातकाल ने तेवरी के सीने में तिलमिलाते विद्रोह के ज्वालामुखी भर दिये। [ पृष्ठभूमि-अभी जुबां कटी नहीं ]
 उपर्युक्त कथन के अनुसार स्व. दुष्यंत कुमार ने हिंदी-कविता की हाट में ग़ज़ल का आकर्षक कलेवर लेकर उसमें विद्रोह का चिंतन अवेष्ठित कर उसे एक मौलिक बानगी के रूप में प्रस्तुत किया और दुष्यंत कुमार कृत हिंदी गजलों की सर्वप्रियता और ग्राह्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाना दुष्कर होगा। लेकिन दुष्यंत कुमार ने अपनी रचना-धर्मिता को तेवरी-संज्ञा से कभी विभूषित किया हो-ऐसा तो याद पड़ता नहीं। यह भी श्री नीरज, श्री बलवीर सिंह रंग, श्री साहिर लुधियानवी और श्री सूर्यभान गुप्त ने अपनी ग़ज़लनुमा रचनाओं को तेवरीनाम से अभिहित किया हो, कभी यह भी सुनने में नहीं आया। तो इन नामधारी प्रख्यात कवियों को तेवरी-आन्दोलन के खेमे में ले आना यदि प्रामाणिक है तो इस आन्दोलन के जन्मदाताओं और पक्षधरों की साहित्यक मुहिम की एक भारी जीत समझी जानी चाहिए।अन्यथा आन्दोलन को बालू की दीवार के सहारे खड़ा करने का बाल सुलभ प्रयास ही कहा जायेगा।
ग़ज़ल शब्द स्त्रीलिंग है, अतः उसका हिन्दीकरण करते हुए लिंगानुरूप तेवरी नाम दिया जाना भाषायी उठापटक है, महज आन्दोलन के बपतिस्मे की गरज से उसके पीछे अकाट्य तर्क, संस्कार और संगति ढूंढ़ना मृग-मरीचिका ही होगी। मेरे विचार से प्रचलित शब्द तेवरीबखूबी चलता।
फिर भी यह निर्विवाद है कि अपने स्पष्ट,सपाट और सीमित उद्देश्य में तेवरी क्रम की रचनाएं पुरजोर और पुरअसर हैं। आज के आस्थाहीन युग में जबकि जीवनमूल्यों का भारी क्षरण हो रहा है और समाज की सतह पर कहीं टीले और कहीं गड्ढे नजर आते हैं, शोषकों के क्रूर पंजों में क्षत-विक्षत मानवता त्रस्त और असहाय होकर अधर में लटकी हुई है, भाव-प्रवण और               संवेदनशील कवियों और खुशनवरों का मर्माहत होकर कड़ी कड़वी बातें कहना एक बड़ी जरूरत है और युग-धर्म भी कविता विषय-विलास और वाग्विलास की वस्तु नहीं, अंग्रेजी कवि मैथ्यु अनेल्डि के शब्दों में जीवन की व्याख्याहै।
तेवरी-आन्दोलन के कवियों ने दलित, शोषित और दग्ध समाज के निरुपाय आखेटों का पक्ष लेकर अपने पैने वाग्वाण अहेरियों पर चलाए हैं। कहना न होगा कि इन वाणों की अनी विषबुझी भी है-
खादी आदमखोर है लोगो!
हर टोपी अब चोर है, लोगो!
[अभी जुबां कटी नहीं ]
तेवरियों का मुखर स्वर कटु, उग्र और प्रहारक है लेकिन वर्ण्य-विषय की व्यापकता इन लघु रचना-अभ्यासिकाओं की सार्थकता को चरितार्थ अवश्य करती है। शिक्षा की व्यर्थता, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नारी-जाति का शोषण, राजनैतिक छल-छदम, सरकारी नौकरशाहों की काहिली, भूमिपुत्रों  की व्यथा, जन प्रतिनिधियों की कथनी-करनी का अन्तर, भुखमरी, वर्गयुद्ध, गरज यह है कि तेवरीकारों ने विविध विसंगतियों पर अपनी पैनी लेखनी चलाई है। अनेक तेवरियां भिन्न-भिन्न कवियों की होते हुए भी सम स्वर और समान अभिव्यक्ति की आलेखना प्रतीत होती हैं, अतः समीक्षक बहुत-सी तेवरियों में पिष्टपेषण और पुनरावृत्ति की झलक देखने की बात करेंगे। लेकिन जब वर्ण्यविषय लगभग एक जैसा हो और अनुभूति का अन्तःबिम्ब भी समान हो तो अभिव्यक्ति के धरातल पर अनेक कवि भी एक सी बात करने लगते हैं।
इन तेवरियों में रस-परिपाक्य या काव्यसौंदर्य का अन्वेषण करना बालू से रेशम निकालने जैसा होगा। तेवरीकारों ने ऐसा दावा किया भी नहीं है बल्कि वे तो सायास कोमलकांत पदावली से अपने को बचते रहे हैं। वे इतने संतुष्ट हैं कि उनकी तेवरियों के प्रणयन से समाज की तंद्रा टूटे और सर्वहारा का सामूहिक संघर्ष,उत्पीड़न और अत्याचार के नए उत्साह ओर जिजीविषा से और तेज हो उठे।
इन तेवरी-संग्रहों में दर्शन बेजार कृत एक प्रहार-लगातारइस आलेख की शुरूआत में कहे गये निर्माण कार्य जैसा है। अपेक्षाकृत संयम और पैने व्यंग्य की शैली में लिखी गई बेजार कृत तेवरियां विचारोत्तजक और भावपूर्ण हैं, यथा ः
आदमी को अर्थ दे जीने के जो।
लाइए तासीर ऐसी कथ्य में।।
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सड़क पर  असहाय पाण्डव देखते।
हरण होता द्रौपदी का चीर है।।
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जो हिमालय बर्फ से पूरा ढका है।
भूल मत ज्वालामुखी उसमें छुपा है।।
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कुछ सियासी शातिरों की रोटियां सिकती रहीं।
राजनैतिक स्वार्थ में मेरा वतन जलता रहा।।
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रहबरो! अब भी समय है, होश लो।
है तुम्हारी कौम पर इल्जाम क्यूं।
[ एक प्रहार ! लगातार ]
तेवरी-आंदोलन की उपादेयता को स्वीकारा जा सकता। साहित्य सागर में अनेक जल-धाराओं का आगमन और परस्पर विलयन होता है। तब सागर तट पर बैठे प्रेक्षक सागर की संयुक्त गहनता और व्यापकता से अभिभूत होते हैं । अलग-अलग जलधारा का आकलन करने में उनकी रुचि नहीं होती लेकिन जलधारा के सहारे-सहारे चलने वाले पथिक की दृष्टि में सागर की विशालता का एहसास नहीं होता है। वह जलधारा का कलरव और उसकी प्रगति की संगीत लहरी में खोया हुआ उसके प्रति समर्पित-सा रहता है। यही बात इन तेवरियों के संदर्भ में उल्लेखनीय है। विशद् हिन्दी साहित्य के सुदीर्घ विस्तार के परिप्रेक्ष्य में साहित्य के अध्येताओं को इन तेवरियों द्वारा जगाए गये रश्मि-आलोक का किंचित उद्भास हो सकेगा, इसकी संभावना जरा कम है लेकिन प्रगतिशील और क्रांतिकारी साहित्य के अन्वेषियों को तेवरी की भावभंगिमा चमत्कृत और उद्वेलित करेगी, यह विश्वास है।
काव्य और कला दोनों का मौलिक और चरम लक्ष्य, सत्य शिव और सुन्दर का भावबोध कराना है। यथार्थ सत्य का वहिरंग और स्थूल रूप है, वह समग्र सत्य नहीं। यथार्थवादी कविता अधूरे जीवन का प्रतिबिम्ब हो सकता है। उस व्यापक, सद्यः स्फूर्ति और स्पष्टणीय मानव-जीवन की परिकल्पना नहीं हो सकती जिसकी प्रतीति अतीत के लब्ध प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्यकारों, विशेषतः कवियों को हुई।  काव्य मात्र दर्पण नहीं है, ऐसा होता तो उसे कौन सहेजता। काव्य आलेखन और आव्हान है, उस वास्तविक मानव-जीवन का जो धरती की गर्दगुबार, मैल, मत्सर से ऊंचा उठकर मानवोचित ऊर्ध्वगामी प्रवृत्ति से सत्य, शिव और सुन्दर की सृष्टि करता है। हाथी के कान या सूंड या पैर को हाथी समझना दुराग्रह होगा। अतः तेवरी-आन्दोलन यथार्थ जीवन के एक छोटे पहलू को भले ही उजागर करता हो, उससे बड़े चित्रफलक को सरासर नजर अन्दाज करता है। यही उसकी सीमाबद्धता या संकीर्णता है। सर्रियलिज्म के सहारे भला क्या सौन्दर्यबोध सम्भव है?
एक बात और ! कबीर जिंदा हैसंग्रह द्वारा कबीर की सपाट  बयानी, सधुक्कड़ी, अक्खड़पन और पाखंड तथा परम्परा पर जबदस्त आघात करने की वीरोचित प्रगल्भता भले ही निगाह में रखी गई हो, कबीर की रहस्यमयता, अध्यात्म और सरल धर्म को पकड़ने में तेवरीकारों की असमर्थता और उनका बौनापन तेवरियों में कबीर के दोहों, साखियों और रमेनियों को आधुनिकीकृत करने का असफल प्रयास है।
अभी जुबां कटी नहींकी प्रस्तावना-पृष्ठभूमि में पृष्ठ में पृष्ठभूमि में पृष्ठ 2 पर सम्पादक द्वारा व्यास, तुलसीदास, बिहारी, विद्यापति, कालीदास, रत्नाकर और हरिओध जैसे कवियों को साम्राज्यवादी, तुष्टीकरण का साजिशी और पैरोकार कहना ऐसे ही है जैसे चन्द्रमा की ओर मुंह उठाकर थूकना। काव्य के उद्देश्य मर्म लाघव और युगधर्म की सम्यक जानकारी किये बिना ऐसे कथन सुरुचिकर नहीं कहे जा सकते हैं। आन्दोलन यदि गाली-गलौज में तब्दील हो जाता है तो उसे जीवन्त और प्रभावी रखना असंभव है। क्या तेवरीकार काव्य के विविध नियमों से अवगत है?
अस्तु, इन तेवरी-संग्रहों का इतना तो प्रकट महत्व है ही कि आज दुरूह मानव जीवन को झकझोरने में ये तेवरियां समर्थ हैं।


तेवरी तथाकथित सौन्दर्य की पक्षधर नहीं +विजयपाल सिंह

तेवरी तथाकथित सौन्दर्य की पक्षधर नहीं

+विजयपाल सिंह
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अधिकांश ग़ज़लगोओं का यह कहना है कि परिवर्तन के साथ ग़ज़ल के मिजाज में परिवर्तन आया है, निस्संदेह यह सोचने पर मजबूर करता है कि ग़ज़़ल के मिजाज में क्या और कैसे परिवर्तन आया है? जैसा कि ग़ज़लगो मानते हैं कि अब ग़ज़ल कल्पनाओं के आकाश में उड़ने के बजाय सामाजिक यथार्थ की जमीन पर समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सामाजिक विकृतियों, विसंगतियों से जूझ रही है, राजनीतिज्ञों साजिशों का पर्दाफाश कर रही है। अब इसके ईद-गिर्द घुंघरूओं की झंकार, शराब के प्यालों की खनखनाहट के बजाय पत्थरों के टूटने और हथौड़ों की खट-पट का शोर है, अय्याशों की वाहवाही की जगह मालिक की बद्तमीजी और फटकारों की बौछार है। कुछ मिलाकर आज ग़ज़ल सामाजिक हितों और नैतिक मूल्यों के लिए सभ्यता के भेडि़यों और आदमखोरों के खिलाफ संघर्षित है।
इस युद्धरत ग़ज़ल को [जो हिंदी पत्रिाकाओं में देखने को मिल रही है] कुछ लोगों ने हिंदीग़ज़ल कहने का भी प्रयास किया।  यहां यह सोचने का विषय है कि चार-छहः हिंदी शब्द डाल देने से यदि कोई रचना हिंदीग़ज़ल हो सकती है [जबकि सच तो यह है कि उर्दू भी हिंदी की एक बोली है] तो भाषायी या बोलियों के आधार पर वह संस्कृत, अरबी, रूसी, अंग्रेजी, तुर्की, मराठी, कन्नड़, भोजपुरी, अवधी या ब्रजभाषा गजल क्यों नहीं हो सकती?
दूसरी तरफ यह भी सोचने का विषय है कि यदि किसी रचना के कथ्य या शिल्प में क्रांतिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है तो वह अपनी मौलिक पहचान खो देती है अथवा नहीं? यदि वह क्रांतिकारी परिवर्तन के साथ अपनी मौलिक पहचान खोती है, अपने पुराने रूप को त्यागकर एकदम नये रूप में प्रस्तुत होती है तो उसे पुराने ही नाम से पुकारा जाना हर प्रकार अनुचित है । ठीक इस तरह जैसे यदि कोई वैश्या वैश्यावृत्ति को त्यागकर अपना घर बसा एक आदर्श पत्नी की भूमिका अदा करती है, लेकिन हम उसे फिर भी वैश्याही सम्बोधित करते हैं ।
क्या इन रूढि़वादी ग़ज़लगोओं को कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली लम्बीबाई में कोई अन्तर नजर नहीं आता? यदि इस सामाजिक बदलाव या सामाजिक क्रांति के पक्षधर तेवर को  तेवरीनाम से पुकारा या परिभाषित किया जा रहा है तो इसमें बेमानी क्या और क्यों है?
तेवरी पर यह आरोप लगाना कितना हास्यास्पद है कि चाकू छुरी नेता, बलात्कार आदि कठोर शब्दों का प्रयोग रचना की खूबसूरती को नष्ट कर देता है। क्या ऐसे ग़ज़लगो ये बताने का कष्ट करेंगे के दंगों में नेताओं के सांप्रदायिकता भड़काने वाले वक्तव्यों और गुंडों द्वारा चाकू और छुरी के प्रहार से उत्पन्न आदमी की चीत्कार व शरीर से बहती हुई लहू की धार के कारुणिक दृश्यों के बीच कौन-सा सौन्दर्य या खूबसूरती होती है? जिसे वे कौन से सुन्दरतम, कर्णप्रिय सहज ढंगी शब्दों या प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करना चाहेंगे? क्या वे बलात्कार के वीभत्स दृश्यों के बीच गुंडों के शिकंजे में छटपटाती नारी के चेहरे पर फूलों जैसी मुस्कान, कंठ से चीत्कार के बजाय सीत्कार सुन सकेंगे? जब सामाजिक यथार्थ कठोरतम, क्लिष्टतम, शोषित, बलत्कृत और अतिपीडि़त हो चुका है तो उसकी अभिव्यक्ति सहज और पुष्मण्डित कैसे हो सकती है?
विश्व इतिहास साक्षी है कि इतिहास की कीर्तनियां मुद्राओं, प्रशस्तिगानों, चाटुकारी प्रवृत्तियों या प्रेमी-प्रेमिकाओं के रिझाने वाली भंगिमाओं ने न तो कभी सामाजिक क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार की है और न कभी कर सकेंगी। साहित्य का असली सौन्दर्य तो रानी लक्ष्मीबाई की तरह तलवार उठाने में ही रहा है, भगतसिंह की तरह संसद में बम फेंककर बहरी सरकार के कान खोलने में रहा है। तथाकथित अहिंसा के पुजारियों को भी उन्नीस सौ बयालीस में करो या मरोका नारा देकर अंग्रेजों की हत्याएं करने, बम प्रयोग से लेकर समस्त अस्त्र-शस्त्र प्रयोग करने पर मजबूर होना पड़ा। विश्व की हर क्रांति बल प्रयोग से ही आयी।
यदि ये ग़ज़लगो सामाजिक यथार्थ से कतराकर कोरी काल्पनिकता की फूलों से लदी मादक गंध से युक्त जमीन पर ही टिके रहना चाहते हैं तो कुछ नहीं कहना, वर्ना उन्हें एक न एक दिन दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों की पीड़ा और तनाव से साक्षात्कार करना पड़ेगा-
हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं।
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।
जर्जर कश्तीका जुलाई-85 अंक, ग़ज़ल प्रतियोगितांक के रूप में प्रकाशित हुआ। इस अंक के निर्णायकों ने ग़ज़ल के संदर्भ में ग़ज़ल के चरित्र या उसके वास्तविक अर्थ-प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीतको ताक पर रखकर जिस तरह ग़ज़ल की सामाजिक संदर्भों में तरफदारी की और प्रस्तुत अंक की पुरस्कृत रचनाओं में सहजता, कर्णप्रियता, खूबसूरती का बखान किया उससे एक बात एकदम स्पष्ट  हो जाती है कि ये निर्णायक, साथ ही तथाकथित तेवरीकार और जर्जर कश्तीके सम्पादक श्री ज्ञानेन्द्र साज़ दुनिया के उन्ही मुन्सिफों में से एक हैं जो सच का गला घोंटते या काटते हैं-
क्या होगा अंजाम न जाने फिर
         एक सख्श ने सच बोला।
उसके लिए दुनिया के मुंसिफ
फिर से खंजर ले आए हैं।।
[गजल प्रतियोगितांक- जर्जर कश्ती]
 क्या जर्जर कश्तीके निर्णायक और ये तथाकथित सौन्दर्यवादी भिन्डरवाला की बारूद उगलती स्टेनगनों से आहत या ढेर होती इंसानियत के बीच कोई लालित्यपूर्ण बिम्ब तलाश कर सकेंगे-
है गरम मौसम हवा में गंध बारूद भरी।
संत भी करने लगे संहार के हस्ताक्षर।।
या
अपने घर में खुद लगा दो आग यारो।
घुस गये पूजाघरों में नाग यारो।।
[गजल प्रतियोगितांक- जर्जर कश्ती]
कहने का अर्थ ये है कि ग़ज़ल की सामाजिक दायित्यों से युक्त तरफदारी करने वाले आज भी अधिकांश ग़ज़लगो या ग़ज़ल के निर्णायक वही लोग हैं जिन्हें न तो सामाजिक चरित्र की पहचान है और न साहित्यिक चरित्र की।

तेवरी उस तथाकथित सौन्दर्य की कभी पक्षधर नहीं रही है जो शारीरिक सौन्दर्य प्रसाधनों में निहित रहता है। बल्कि वह तो शरीर के स्थान पर व्यक्ति के उस मन-मस्तिष्क की पहचान कराती है जो पत्नी और वैश्या, बहिन और प्रेमिका, काॅलगर्ल और मां, पिता और  अय्याश, शासक और कुशासक में अन्तर स्पष्ट करता है। साथ ही परिवार, समाज, देश, मानवता के प्रति उस कर्तव्य का बोध कराती है जो व्यक्ति से व्यक्ति को कर्त्तव्यबोध से जोड़ता है। तेवरी ग़ज़ल की तरह लैला-मजनंू, शीरी-फरिहाद, हीर-रांझा के उन  कारनामों की न तो पहले कभी पक्षधर थी और न अब है, जो सिर्फ शारीरिक सम्भोग के लिए सौन्दर्य के मानचित्र बनाती है।

Monday, July 11, 2016

तेवरी किसी नाकाम आशिक की आह नहीं +ज्ञानेन्द्र साज

तेवरी किसी नाकाम आशिक की आह नहीं

+ज्ञानेन्द्र साज
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    सुविख्यात तेवरीकार दर्शन बेज़ार की नवीनतम कृति ये ज़ंजीरें कब टूटेंगीउनकी सुलिखित, सुचयनित 48 धारदार तेवरियों का बेहतरीन संग्रह है। तेवरीशीर्षक विधा को साहित्य में स्थापित करने के लिए तीन दशक से एक धीमा मगर पुख्ता संघर्ष होता रहा है। आज नहीं तो कल देश के सभी ग़ज़लकार भी इसे एक विधा के रूप में स्वीकारेंगे, मुझे यह पक्का यकीन है। इस संघर्ष में मेरे अनुज रमेशराज बराबर संघर्ष करते रहे हैं।
    ग़ज़लकार ये ज़ंजीरें कब टूटेंगीको पढ़कर इसे ग़ज़ल संग्रह ही कहेंगे, यह कोई नयी बात नहीं होगी। उन्हें भाई दर्शनजी की तेवरियों में कहीं भी आक्रोशमय प्रस्तुति नजर नहीं आयेगी। वह तो उन्हें रदीफ, काफिया, बज्न, बह्र जैसी मान्यताओं पर ही कसेंगे। मैं इस पुस्तक के माध्यम से यह अवश्य कहना चाहूंगा कि वे सच को स्वीकारने की हिम्मत दिखायें।
    आज देश में जो घोटाले और भ्रष्टाचार पोषित राजनीति पनप रही है वह समाज को क्या दे रही है, भ्रष्टाचार और घोटाले ही न? तो फिर समाज प्रदूषित क्यों नहीं होगा। आज वही प्रदूषण राष्ट्र और समाज की सबसे छोटी इकाई यानी हम और आप को भी अपनी चपेट में ले चुका है। आज के दौर में हम और आप भी दूध के धुले नहीं हैं।
    ग़ज़ल का कथ्य कभी भी आक्रोशित नहीं रहा, उसका अपना निश्चित दायरा ही रहा जो प्रेमी-प्रेमिका से मिलन-विछोह की टीस या खुशी और साक़ी, शराब, मयख़ाना के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। ग़ज़ल इस रूप में बहुत प्यारी विधा है, मगर तेवरी कभी इस तरह का वातावरण में रहना पसंद नहीं करती. उसे तो आमजन की रोजी-रोटी की फिक्र है, उसे आदमी के नंगे बदन के लिए कपड़ों की फिक्र है, उसे खाली हाथों को काम दिलाने की फिक्र है, उसे निर्बल को दबंगों से बचाने की फिक्र है, उसे हर तरफ मच रही लूट की चिंता है। उसे सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही महंगाई से गरीबों को बचाने की चिंता है। तेवरी किसी नाकाम आशिक की आह नहीं, वरन् उस आदमी की व्यथा है जिसका शासन और प्रशासन द्वारा हर स्तर पर शोषण हो रहा है।
    आइये, अब ऐसी विश्व और राष्ट्रव्यापी समस्याओं पर चर्चा करती बेज़ार के तेवरी-संग्रह ये जं़जीरें कब टूटेंगीकी तेवरियों पर भी दृष्टिपात कर लिया जाए-
हंगामा हर चैराहे पर दहशत में सारा अवाम है।
    क्या यह सच नहीं है सारे देश में यही हाल है। त्राहि-त्राहि मच रही है। मनुष्य चौराहों पर जाम लगा रहा है, कभी बिजली के लिए तो कभी टूटी सड़क को ठीक कराने के लिए। कभी महंगाई के विरोध में तो कभी दुर्घटना में मृत किसी व्यक्ति के लिए। ये सब क्या हो रहा है? दबंग, गुण्डे, दहशतगर्द शासन और प्रशासन की ही सरपरस्ती में पनपने वाले उन लोगों के विशेषण हैं जो समाज को जौंक की तरह खा रहे हैं/खोखला कर रहे हैं। उनकी खिलाफत करने का मतलब अपनी जान से हाथ धोना है। प्रतीकों के माध्यम से यही बताता यह तेवर भी देखें-
इस तरह डूबे परिन्दे खौफ में सैयाद के
जिंदगी जैसे कि उनकी दी हुई जागीर है।
    बेतहाशा पानी के दोहन को लेकर उठ रही विश्वव्यापी समस्या पानी की होती जा रही कमी को लेकर भी तेवरीकार चुप नहीं बैठा, वह धरती मां से ही प्रश्न करता है और उत्तर भी देता है-
सूखे ताल-तलैया रीती गागर, खाली डोल
कब तक ये विद्रूप रहेगा धरती माता कुछ तो बोल?
चुरा ले गये सब हरियाली मौसम के ये काले चोर
कहां गठरिया किसने बांधी कोई नहीं रहा मुंह खोल।
    प्यार-मुहब्बत में भी जब कोई विसंगति उत्पन्न हो जाती है जो फिर वो प्यार नहीं रह जाता, उसमें भी एक आक्रोश रुपी व्यथा पैदा हो जाती है। मैं बेजारजी के शब्दों में ही एक पति से दूर गांव में बैठी पत्नी के प्यार की व्यथा का चित्र दिखा रहा हूं-
पाती नहीं तुम्हारी आयी अब घर जल्दी आ जाओ
खर्च हो चुका पाई-पाई अब घर जल्दी आ जाओ।
छोटी बिटिया हफ्रतों से स्कूल नहीं जा पायी है
उसकी फीस नहीं भर पायी अब घर जल्दी आ जाओ।
                          या
उनके हिस्से में कुटिया का बस छोटा-सा कोना है
दादा-दादी क्या कर लेंगे जब बंटवारा होना है।
हर बेटे की अलग-अलग मति अलग-अलग सबकी राहें
कई जलेंगे घर में चूल्हे इसी बात का रोना है।
    अब कोई यह बताए कि पारिवारिक प्यार की टूटती कड़ी को देख कौन आक्रोशित नहीं होगा? यह आक्रोश ही तेवरी के रूप में उपजता है। तेवरीकार मात्र समस्याओं की ओर ही उंगली नहीं उठाता, वह तो उसका हल भी बताता है, मगर समाज उसकी बात को ग्रहण कर ले तभी तो इंकलाब की उम्मीद की जा सकती है-
          सींखचों को देखकर तू हो न यूं भयभीत रे,
आग उगले लेखनी कुछ इस तरह रच गीत रे।
वक्त रुकने का नहीं है साथियो! चलते रहो
वक्ष पर अन्याय के तुम मूंग नित दलते रहो।
                 अथवा
तू अपनी खुद की हिफाजत में लग जा
जमाने से खुलकर बगावत में लग जा।
कसम है तुझे आज बहते लहू की
हर एक जुल्म की तू खिलाफत में लग जा।
    समस्या उठाना और उसका समाधान भी देना हर तेवरीकार की सोच का उम्दा नमूना है। यह बात बेज़ारजी की इस प्रकाशित पुस्तक ही नहीं उनके पूर्व तेवरी संग्रहों एक प्रहार लगातार’, ‘देश खण्डित न हो जायेमें भी बोलती है। उनकी हर तेवरी आक्रोश का दस्तावेज है।
    मैं अपनी ओर से उनके इस संग्रह पर उन्हें हृदय से साधुवाद देता हूं तथा भविष्य में उनसे और भी बेहतर तेवरियों के साथ आने की प्रतीक्षा भी कर रहा हूं। वे दीर्घायु हों, मेरा शुभाशीष उनके साथ है। वे अलख जगाए रहें...