Friday, March 18, 2016

तेवरीः युवा आक्रोश की तीसरी आँख +डॉ . रवीन्द्र ‘भ्रमर’

तेवरीः युवा आक्रोश की तीसरी आँख 

+डॉ . रवीन्द्र भ्रमर
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    ‘तेवरीके प्रति मेरा ध्यान निरन्तर आकर्षित होता रहा है और आज की हिन्दी कविता के सन्दर्भ में, मैं इसे एक सार्थक एवं साहसी कदम कहना चाहता हूँ। एक काव्य-विधा के रूप में तेवरीका ताना-बाना अलीगढ़ में तैयार हो रहा है, लेकिन इसी काव्य-सर्जना के पैटर्न अन्य स्थानों पर भी बुने गये हैं या बुने जाने लगे हैं। इसे मैं तेवरीमें निहित कथ्य की चिन्गारी और शिल्प की आँच के प्रयास रूप में देखता हूँ।
मेरे शहर में युवा आक्रोश के कवि रमेशराज, अरुण लहरी, योगेन्द्र शर्मा और सुरेश त्रस्त ने जनजागरणकी विचार-प्रधान तेवरी-पक्षका सम्पादन प्रारम्भ किया। इसके आँकड़ों में प्रकाशित सामग्री को मैं देखता रहा हूँ। श्री रमेशराज द्वारा सम्पादित तेवरीकवियों के कुछ समवेत संकलन भी मुझे देखने को मिले। तेवरीके विस्फोटक कथ्य और आक्रोशपूर्ण मुद्रा का जो सटीक परिचय कराते हैं, इन संकलनों के नाम हैं- 1. ‘अभी जुबां कटी नहीं’, 2. ‘कबीर जि़ंदा है’, 3. ‘इतिहास घायल है। इन संकलनों में लगभग ढाई दर्जन कवियों की तेज-तर्रार और धारदार रचनाएँ संकलित हैं।
तेवरी-कवि श्री दर्शन बेज़ार की रचनाओं का एक स्वतन्त्र-सम्पूर्ण संकलन प्रकाशित हुआ है-‘एक प्रहारः लगातार। काव्य-संग्रह का यह नाम भी तेवरी कवियों की युयुत्स मनःस्थिति और तेवरी विधा के बोध-पक्ष को उजागर करता है। श्री बेज़ार से कई कारणों से मेरा कुछ गहरा परिचय है। उनके इस काव्य-संग्रह को मैंने बहुत ध्यान से और किंचित् आत्मीयता के साथ पढ़ा। तेवरीके प्रति मेरी अनुशंसा और आस्था का प्रसंग यहीं से शुरू होता है।
कुछ समय पूर्व, अलीगढ़ के बुद्धिजीवीवर्ग के बीच आयोजित श्री बेज़ार की काव्यकृति एक प्रहारः लगातारके विमोचन-समारोह की अध्यक्षता का भार मुझे सौंपा गया।  इसके लिये सार्थक-सृजन प्रकाशनके नियामक और तेवरीके सूत्रधार श्री रमेशराज का मैं विशेष आभारी हूँ। उक्त अवसर पर मैंने तेवरीको युवावर्ग की तीसरी आँखकी संज्ञा दी थी।
पुराण-पुरुष शिव की तीसरी आँख जब खुलती है तो किसी ज्वालामुखी की भांति तप्त लावा उगलती है और पाप का प्रत्यूह तथा कामाचार का अवरोध जलकर राख हो जाता है। ध्यान-मग्न शिव की समाधि  बड़ी मुश्किल से टूटती है लेकिन जब कभी ऐसा होता है तो कोहराम मच जाता है-कृत्रिम वसन्त में  आग लग जाती है। तेवरी के शब्द-संधान को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और सामाजिक विद्रूपताओं में आग लगाने के लिये युवा-आक्रोश की तीसरी आँख खुल गई है।
विश्व-वाड्.मय का इतिहास साक्षी है कि कविता से फूल और त्रिशूल दोनों का काम लिया गया है। सामाजिक क्रान्ति के सन्दर्भ में कवि की कलम हरसिंगार की टहनी में तलवार उगा लेती है। आज के सामाजिक जीवन में जो अन्याय, उत्पीड़न और शोषण की विभीषिका है, उसी के समानान्तर युवा कवियों की कलम अन्याय की शृंखला को काटने के लिए अत्याचार और शोषण के पूँजीवादी प्रपंच को जलाने के लिये तेवरी  के  माध्यम से बारूदी भूमिका तलाश कर रही है।
अन्याय की शृंखला को काटने के लिए अत्याचार और शोषण के पूँजीवादी प्रपंच को जलाने के लियेतेवरीके तेवर इसी पृष्ठभूमि में ध्यातव्य हैं-
1.   अब हंगामा मचा लेखनी,
कोई करतब दिखा लेखनी।
मैं सूरज हूँ इन्कलाब का,
मेरा इतना पता लेखनी।
[रमेशराजःअभी जुबां कटी नहीं]
अब कलम तलवार होने दीजिए,
दर्द को अंगार होने दीजिये।
2.घायल है इतिहास समय के वारों से,
चलो रचें साहित्य आज अंगारों से।
[दर्शन बेज़ार, एक प्रहारः लगातार]
तेवरीविधा  रोमानी ग़ज़ल का युयुत्सावादी हिन्दी रूपान्तर मात्र नहीं है। समकालीन कविता में ग़ज़ल का प्रचार खूब हुआ है और तेवरी के कवि भी ग़ज़ल के पैटर्न के प्रति भले ही आकर्षित दिखाई पड़ते हैं किन्तु इनकी रचनाओं में हिन्दी-छन्दों का प्रयोग विशेष दृष्टव्य है। आल्हा के लोकछन्द में बुनी गई एक सफल रचना इस प्रकार है-
हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम।
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम।।
 [सुरेश त्रस्त, कबीर जि़न्दा है]
दोहा छन्द में तेवरी का एक प्रयोग देखिये-
रोजी-रोटी दे हमें या तो यह सरकार।
वर्ना हम हो जाएंगे गुस्सैले खूंख्वार।।
[रमेशराज, कबीर जिन्दा है]
    ‘तेवरीकी रचनाओं में पुराने छन्दों के अभिनव प्रयोग के साथ जनभाषा की मुखरता और संप्रेषण की सहजता एक विशिष्ट आयाम को उभारती है। अब कविता में जन-भाषा की शब्दावली और मुहावरों का प्रयोग बहुत जरूरी है।

कविता यदि क्रान्ति का औजार और सामाजिक परिवर्तन का माध्यम है तो उसमें सीधा  और सटीक संप्रेषण होना चाहिए। सातवें दशक में अलीगढ़ से अखिल भारतीय स्तर पर सहज कविताका अभियान चलाते हुए मैंने अनुभूति का सार्थकता और अभिव्यक्ति की सहजता पर विशेष बल दिया था। मुझे खुशी है कि नवें दशक में तेवरीने इस ऐतिहासिक दायित्व को ग्रहण करने की सूझबूझ दिखाई है। समकालीन हिन्दी कविता में इसके भविष्य के प्रति मैं आशान्वित हूँ।

ग़ज़ल को ‘तेवरी’ ही क्यों कहना चाहते हैं ? डॉ . सुधेश

ग़ज़ल को तेवरीही क्यों कहना चाहते हैं

डॉ . सुधेश 
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    आप ग़ज़ल को तेवरीही क्यों कहना चाहते हैं? ग़ज़ल जैसे लोकप्रिय शब्द के होते तेवरी, गीतिका, ग़ज़लिका जैसे शब्दों को चलाने की क्या आवश्यकता है? नीरज ने गीतिका शब्द चलाने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुए। षभदेव शर्मा ने भी तेवरी शब्द का समर्थन किया था, पर बाद में मौन धारण कर लिया। यदि नया तेवर दिखाने का आग्रह है तो प्रत्येक सफल कविता में होता है। यदि नये तेवर की कविता तेवरी है तो उसका रूप ग़ज़ल की शैली का सहारा क्यों लेता है?
    अब आपके संपादकीय पर कुछ साफ बातें- आप मात्रिक छन्द में लिखित ग़जल के समर्थन की कोशिश में मात्रा गिराना अर्थात दीर्घ स्वर को हृस्व स्वर के रूप में पढ़ने और लिखने की कोशिश के आलोचक हैं। आपके तर्क सही हैं। मात्रा गिराना उर्दू ग़ज़लों में आम है। पर उर्दू ग़ज़ल में उसे मान्यता प्राप्त है। तब हिन्दी कवि यदि अपनी ग़ज़ल में वृद्धि-ढंग अपनाये, तो उसे आप दोष क्यों मानते हैं? श्री आर.पी. शर्मा महर्षि की पुस्तक मैंने नहीं देखी, पर आप द्वारा उन पर की गई आलोचना पढ़कर मुझे लगता है कि शर्माजी मात्रा गिराने की कोशिश के समर्थन में अति तक चले गए। मात्रा गिराने की कोशिश यदि मौखिक स्तर तक रहे तो अर्थ-बोध बाधित  नहीं होता, पर जब उसे लिखित रूप में उतारा जाए तो वह बेहूदा कोशिश हो जाती है। एक बात और हिन्दी में केवल मात्रिक छन्द नहीं है, अतः आपका कथन दोषपूर्ण है। दूसरे शब्दों में यह कि यह आग्रह उचित नहीं है कि हिन्दी ग़ज़ल केवल मात्रिक छन्द में लिखी जाए तो क्या वर्णिक छन्द विधा  केवल पुस्तक में परिगणित होने के लिए है?


‘तेवर’ का शाब्दिक अर्थ है-‘क्रोध् भरी चितवन’ डॉ. विशनकुमार शर्मा

तेवरका शाब्दिक अर्थ है-‘क्रोध-भरी चितवन 

डॉ. विशनकुमार शर्मा
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    श्री रमेशराज ने कविता के क्षेत्र में एक विशेष प्रवृत्ति को लेकर कविता-सृजन करना आरम्भ किया है और उसका नाम रखा है-‘तेवरी। वे तेवरीको विधा कहते हैं-‘‘सामाजिक, राजनीतिक विकृतियों के प्रति तिलमिलाते तेवरों के आधार पर हमने तेवरी को काव्य की एक विधा के रूप में स्वीकारा है।’’ ;तेवरीपक्ष-1, पृ.1
 ‘तेवरका शाब्दिक अर्थ है-‘क्रोध् भरी चितवन’, काव्य के साथ इसका अर्थ-‘क्रोध् या विद्रोह भरी कथन-भंगिमा माना जा सकता है। श्री रमेशराज के खेमे के कवियों के तेवरीकाव्य को पढ़ने से यह अवश्य लगता है कि उसमें सामाजिक और विशेष रूप से राजनीतिक विकृतियों के प्रति विद्रोह की भावना की प्रतिष्ठापना ही अधिक है। कुछ कवियों की इसी विद्रोह की अभिव्यक्ति ग़ज़ल की शैली में भी हुई है।
कुछ लोग ग़ज़ल की धारा को केवल प्रेम-शृंगार से जोड़ते हैं । प्रमुखतः ‘‘ग़ज़ल के मूल में ग़ज़ाल [हिरन का बच्चा] शब्द है। ग़ज़ल उस कराह को कहते हैं, जिसे एक ग़ज़ाल [हिरन का बच्चा] शिकारी का तीर लगने पर अपनी बेबसी में निकालता है। इसलिये ग़ज़ल नामक काव्य-रूप में दुनिया की नापायदारी और दर्दमंदी का जिक्र किया जाता है। इस तरह ग़ज़ल में मूलतः करुणा, शृंगार और शान्तरसों की प्रधानता रहनी चाहिए। हिन्दी की आधुनिक ग़ज़लों में शान्तरस की बात अधिक  है। कतिपय ग़ज़लगो शान्ति के माध्यम से समाज और राजनीति की विकृतियों का पर्दाफाश आज भी कर रहे हैं।’’ उक्त कथन के माध्यम से मैं यह तो नहीं कहना चाहता कि तेवरीवास्तव में ग़ज़ल है? नहीं, उसमें ग़ज़ल की शैली आंशिक ही उतारी अवश्य गयी है। 
तेवरी का उद्भव एक ऐसे समाज की देन है, जिसे विशेष रूप से राजनेताओं ने सताया है। जैसे-कोई स्वतंत्र सिंहों की वनस्थली में मदमस्त हाथी अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहे। लोकतंत्र का प्रत्येक मानव स्वतंत्र सिंह है और नेता मदमस्त हाथी। उसका प्रभुत्व तभी तक है, जब तक कि चुनाव का चपेटा लोकतंत्र के मानव रूपी सिंहों के द्वारा मदमस्त हाथी के कानों पर नहीं पड़ता। तेवरी के कविइस चपेटेको नेता के कानों पर बुरी तरह से पड़वाने की तैयारी कर रहे हैं। एक प्रकार से तेवरी का सबसे प्रबल पक्ष शोषकवर्ग पर कुठाराघात करना ही है। यद्यपि अन्य कुछ सामाजिक पक्ष भी तेवरीके अपने मूल मुद्दे हैं। हिंसा, बलात्कार, मुनाफाखोरी भी इसकी विशिष्ट प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं। और इन सबके मूल में हैवानियत को खरीदने वाला वह नेता ही है।
सच्चा काव्य या साहित्य हमारे समाज का, हमारी राजनीति का और हमारी प्रशासन-पद्धति का वास्तविक शब्द-बिम्ब खड़ा करता है। जिस देश की सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक प्रपंच और प्रशासनिक चालें जैसे होंगे, साहित्य उनका वैसा ही रूप प्रस्तुत करेगा। आज हमारा समाज, हमारी राजनीति आदि जैसे बन गये हैं, उसे आज के स्वतंत्र साहित्यकार के द्वारा ठीक उसी रूप में चित्रित किया जा रहा है। गत वर्षों से कवि सम्मेलन-मंचों से लेकर लिखित काव्यकृतियों में हमको एक ही पीड़ा, एक ही घुटन सुनने को मिल रही है, वह पीड़ा या घुटन है-सामाजिक और विशेष रूप से राजनीतिक विकृतियों से सताये गये व्यक्ति की।
किसी पाश्चात्य साहित्यकार ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण है। वास्तव में आज का साहित्य विशेष रूप से तेवरीसाहित्य आज के समाज का दर्पण है। उसमें आज के मुखौटेबाज समाज के चेहरों को साफ-साफ देखा जा सकता है। साहित्य की उपयोगिता के संदर्भ में मूल बात ध्यान देने की यह है कि साहित्यकार के द्वारा जो रचना, काव्य-उपन्यास-कहानी-नाटक आदि के नाम से समाज को दी जा रही है, उसमें हमें देखना है कि मनुष्य को पशु-सुलभ धरातल से उठाकर उदात्त रास्ते पर ले जाने की क्षमता है या नहीं। यदि ऐसी क्षमता उसमें है तो वह साहित्यिक कृति है। यदि ऐसी क्षमता उसमें नहीं है तो वह कोरा वाग्जाल है, वह निरर्थक है। उसे हम साहित्यक कृति कभी नहीं कह सकते। वास्तव में तेवरीकी कविताओं में कुछ-कुछ यह शक्ति निहित है कि वह विकृत समाज और विकृत राजनीति को ठीक कर सकेगी। बात को कहने की उसमें तीखी व्यंजना-शक्ति भी निहित है।


ग़ज़ल ने रंगीनियों में श्रीवृद्धि की है

 ग़ज़ल ने रंगीनियों में श्रीवृद्धि की है 
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तेवरी आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर परोक्ष स्पष्टता की शर्त होना आवश्यक है। हमें सैद्धान्तिक तौर पर इस बात को स्वीकारने में कतई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि आन्दोलनों से साहित्य समृद्ध होता है और उसके विकास को गति मिलती है। वैचारिक मतभेद और विरोध के वातावरण में रचनाशीलता को एक नया निखार हासिल होता है। साहित्य गतिरोध और जड़ता को तोड़कर जि़न्दगी के और करीब आता दिखायी देता है। लेकिन यह आन्दोलनों का केवल एक पक्ष है और ऐसा तभी मुमकिन होता है जब किसी आन्दोलन के आधारभूत वैचारिक आग्रह बहुत स्पष्ट हों और उस वैचारिकता के रचनात्मक प्रतिफलन की दृष्टि से भी वह एक सुदृढ़ आधार पर खड़ा हो। अतः जरूरी है कि वैचारिक ग्राह्यता और रचनाशीलता के प्रति तेवरीकारों को काफी सजग रहना होगा।
तेवरी की पृष्ठभूमि को भाई रमेशराज स्पष्ट करते हुए अपना मत जिस प्रकार प्रकट करते हैं, उससे यह तो आभास हो जाता है कि तेवरी का वैचारिक आग्रह बहुत कुछ युवावर्ग से ही सम्बन्धित है। उग्रता, तत्परता, निरंतरता, नकारने की दृढ़ता, कुंठा को काट फैंकने की कोशिश का प्रतिफलन ही तेवरी है। समसामायिक वातावरण की आवश्यकता के साथ ही साथ परिस्थितियों को उभारने में तेवरी का लक्ष्य बेधित रहा है। खासकर राजनीतिपरक दुर्गंधता । इस वैचारिक आग्रह के साथ ग़ज़ल होने के खतरे हैं, जो चुनौती स्वरूप खड़े हो सकते हैं।
    आशा गुप्ता का मानना है-‘शिल्प के स्तर पर आयी साम्यता विवादास्पद नहीं है किन्तु यदि वैचारिक स्तर पर तुलना की जाए तो समकालीन ग़ज़ल और तेवरी में बहुत कुछ साम्यता है। परिवेश को स्वीकारने में आज ग़ज़ल भी सामर्थ्यवान है किन्तु तेवरी से उसकी वही भिन्नता है जो एक कहानी और सत्यकथा [अपराध् कथा] में है। कहानी का वैचारिक परिवेश और अपराध कथा का वैचारिक परिवेश जितना भिन्न है, उतना ही ग़ज़ल और तेवरी का।
ग़ज़ल के मुकाबले तेवरी के लिये एक सीमा काम करती है। तेवरी ग़ज़ल में घुस सकती है, किंतु ग़ज़ल का तेवरी में घुसना अतिकमण होगा जो नकारात्मक होगा। यही वजह है कि तेवरी में सब कुछ होते हुए भी आक्रोशजनित वैचारिक आग्रह है, जबकि ग़ज़ल में इस तरह की शर्ते जरूरी नहीं है। अपने जन्मकाल से ग़ज़ल ने रंगीनियों में श्रीवृद्धि की है। इस हेतु ग़ज़ल, तेवरी के एकदम निकट होते हुए भी बहुत दूर है, अंतरंगता के नाते से।
    डॉ. हरिमोहन कहते हैं-‘तेवरी नाम की सार्थकता विवादास्पद है। अगजलभी ऐसा ही तथाकथित आंदोलन था.. हिन्दी कविता भी तो प्रारम्भ से ही दरबार की चीज रही है। क्या कविता को दरबार की चीज मानकर कुछ कहना होगा?’
    कविता को दरबार की चीज मानकर यही कहा जा सकता है कि तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवेशगत परिस्थितियों का अवलोकन एक बार पुनः कर लिया जाये, क्योंकि लेखन का समकालीन संदर्भों को साथ रखकर ही मूल्यांकित/रेखांकित किया जाना श्रेयस्कर होता है। 
यदि आप यथार्थवाद से प्रभावित होने की अपेक्षा रखते हैं-लिखते हैं तो चौराहे पर हुए दंगे में एक-दो बार लाठियाँ झेलकर हो दंगे की भयावहता और आतंक की सार्थक अभिव्यक्ति अधिक सुशक्तता से कर सकते हैं। अपनी प्रेमिका के करीब बैठकर प्रेमप्रसंग करते हुए दंगे के लिए पृष्ठ रँगना यदि कोई सजग समीक्षक उचित ठहरा देता है तो तेवरी की अपेक्षा ग़ज़ल को अधिक सशक्त विधा मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होगी।
कुल मिलाकर स्थिति यह हो जाती है कि विधा का महत्व रेखांकित करने के पूर्व विधा  के उपजने की मजबूरी को ओर ध्यान दें। यहाँ यह भी उल्लेखनीय होगा कि भाई रमेशराज का तेवरी के लिए तत्कालीन कवियों जैसे तुलसी, बिहारी, घनानंद बगैरह-बगैरह को दोषी ठहराने का नजरिया उपयुक्त नहीं है। तेवरी का महत्व प्रतिपादित करते समय यह सोचना बहुत जरुरी है कि हमें इतिहास लिखना है, पुनरावृत्ति नहीं करनी है। दिल्ली प्रेस की भांति हिन्दी काव्य के आधार स्तम्भों का मखौल नहीं उड़ाना है। इस तरह के नजरिए साहित्य की विधाओं को कहीं नहीं ले जाते, वरन् पीछे धकेल लाते हैं और व्यर्थ ही अप्रिय विवादों के कठघरे में ला खड़ा करते हैं।
    साथ ही हम कदापि यह नहीं भूलें कि अपने सामाजिक, राजनीतिक विचारों और समूची मानसिकता को उसकी सार्थकता के सन्दर्भ में रेखांकित किए बिना किसी नये आंदोलन की अगुआई की महत्वाकांक्षा दुर्भाग्यपूर्ण ही समझी जानी चाहिये। वरना कुछ खतरे पैदा भी होते हैं। बहरहाल इस तरह के दौर से गुजरने के पहले यह जान लेना भी जरूरी है कि इसके पीछे कितनी सर्जनात्मक ऊर्जा हमें निरंतर देनी है, वरन् कुछ लोग इसी बहाने भी अपनी रोटी सेंककर खाते हुए बाजू से गुजर जायेंगे और हम फिर भूखे ही रह जाने के लिए मौजूद रह जायेंगे।
जो लोग हर आंदोलन के साथ हो लेने की सुविधाजनक स्थिति में होते हैं, वे वस्तुतः किसी के भी साथ नहीं होते, स्वयं अपने साथ भी नहीं। समय का एक बहुत छोटा-सा टुकड़ा भी इस बात को खूब अच्छी तरह स्पष्ट कर देता है कि ऐसे लोगों के साथ किस किस्म का सलूक होना चाहिये। तेवरी के पीछे भी साजिशों का उद्भव होगा, इसमें दो राय नहीं। किंतु इसके लिये स्वयं हमें तैयार होना होगा कि हम समय का एक बहुत छोटा-सा टुकड़ा भी इनके लिए अवश्य निकालें जो मधुरेश के अनुसार-‘अपने किस्म का सलूक करेगा
जो लोग अभी भी  संदेहास्पद बयान दे रहे हैं, उन पर क्या विश्वास किया जाये कि वे तेवरी के संक्रमण काल में तोड़ेंगे नहीं। वस्तुतः ऐसे किसी भी किस्म के निराशावादी दृष्टिकोण और उसके प्रेरकों को बाजू से गुजर जाने के लिए भी हमें एक गली सुरक्षित रखती होगी।
बहरहाल तेवरी को लेकर अपच्य कथ्य विवाद हमारे सामने न आएँ, ऐसे प्रयास होना चाहिये। किन्तु यदि आ भी जायें तो उसे हटा लेने की क्षमता हममें होनी चाहिए। इस जरा से अपच्य की खातिर हम अपने भरे पूरे पेट को लेकर किसी डाक्टर के पास जाएँ और पचवायें, इससे बेहतर है कि अपच्य को खुद ही नकारें, किन्तु शालीनता की सीमा में। 


तेवरी-आन्दोलन परिवर्तन की माँग +चरनसिंह ‘अमी’

तेवरी-आन्दोलन परिवर्तन की माँग 

+चरनसिंह अमी
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    परिवर्तन प्रक्रिया के लिए मुख्यतः तत्कालीन परिवेश, माँग, परम्परा, मूल्य, अधिक जिम्मेदार होते हैं। साहित्य के संदर्भ में कहें तो जब भी अभिव्यक्ति, समाजगत-आदमीगत नये आयाम तलाशती है, वह पिछला पूरी तरह खंडित तो नहीं करती किन्तु बहुत हद तक उसे स्वीकारने में हिचकिचाती जरूर है। यह निर्विवाद रूप से स्वीकार्य होना चाहिए कि अभिव्यक्ति इस प्रचलित रूप में संकुचित होती जा रही है, समुचित रूप से अपनी बात नहीं कह पा रही है। या यूँ कहें कि कब उसको नये अर्थ-संदर्भ या मूल्य को अभिव्यक्ति देने में वर्तमान प्रचलित रूप असमर्थ है। बहरहाल यहीं से परिवर्तन की माँग उठने लगती है, जो निरंतर तेवरी को स्थापना की ओर अग्रसर करती है।
ग़ज़ल का अपना एक कोण रहा है। वह दायरों में बँधी रहे, आवश्यक नहीं है। किसी भी विधा के लिए यह जरूरी शर्त भी है कि वह दायरा तोड़े। किन्तु ग़ज़ल को दायरे में बाँधकर रखा जाना ही श्रेयस्कर साबित नहीं हुआ। हालांकि उसकी छटपटाहट महसूस की जाती रही। प्रेमी-प्रेमिका को साँसों के दरम्यान टकराने वाली ग़ज़ल, प्रेमिका के जूड़े में गुलाब की तरह खुँसती रही। किन्तु जब वह वहीं उलझकर रह गयी तो उसे किसी ने भी बाहर निकालने की कोशिश नहीं की। ऐसे में गुलाब की जगह यदि तेवरीने आकर क्लिम्प खोंस दिया तो इसमें जूड़े की सुन्दरता घट तो गई? क्या जूड़े को और अधिक सुहढ़ता नहीं मिली? कभी-कभार यह पिन सिर के भागों में चुभ भी गयी तो यह क्षम्य होना चाहिए |
यदि तेवरी को अतिक्रमणकारी प्रवत्ति में देखे तो उसके सन्दर्भ में तमाम बातें वाजिब ठहरती हैं। तेवरी की इसी जुर्रतबाजी के कारण ही ग़ज़ल के कुछ हिमायतदार तेवरी को इतने सीधे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर इतनी क्षमता वे स्वयं मैं पैदा भी नहीं कर पाये हैं।
तेवरी के अपने निजी तेवर हैं, अपनी बौखलाहट है। आज बौखलाया-टूटा हुआ आदमी यदि अचानक मुँहफट हो जाए, मारने के लिए ईंट उठा ले, अधिकारों के लिए सीधे-सीधे गालीगलौज पर उतारू हो जाए और चीखे तो इसमें ग़ज़लकारों को तेवरीकारों को गरियाने की जरूरत क्या है? ग़ज़ल के हिमायती यह क्यों देखते हैं कि तेवरीकार क्या चिल्ला रहा है? वे यह क्यों नहीं देखते हैं कि वह क्यों चिल्ला रहा है? असल में बहस का मुद्दा भी यही दूसरी बात होनी चाहिए।
इसमें उलझने से हमें कुछ नहीं मिलेगा कि तेवरी विधा है या नहीं। यह स्थापित होगी या नहीं? परिभाषा और मुख्य आधार क्या हो? क्या तेवरी युगबोध को पूरी तटस्थता से देखेगी? ये मुद्दे बड़े हैं। इन पर तत्काल बहस करने की कतई आवश्यकता नहीं है। बहस तत्काल इस पर की जानी चाहिये कि तेवरी को हम इतना जरूरी क्यों महसूस कर रहे हैं? आज के संदर्भ में उसके लिए हम कितनी रचनात्मक ऊर्जा चुका रहे हैं?
बहरहाल तेवरी को सजग आन्दोलन का रूप दिया जाना नितांत अपेक्षित है। तेवरीपक्षनिकालकर अलीगढ़ से श्री रमेशराज व उनके साथियों ने दुस्साहस किया है। एक कड़वा सच सामने है। तेवरी काफी देर से सामने आयी। खैर! देर आयद, दुरुस्त आयद!


भौतिकवाद के निकम्मेपन से तेवरी का उद्भव +राजकुमार ‘निजात’

भौतिकवाद के निकम्मेपन से तेवरी का उद्भव  

+राजकुमार निजात
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    तेवरी एक कविता है, मगर कविता तेवरी नहीं है। आज हिन्दी कविता जिस जगह, जिस स्थित में है, इसके अध्ययन के फलस्वरूप हमें ऐसा गौरव अनुभव नहीं होता, जैसा कि हमें होना चाहिए। कविता साहित्य की परिधि से निकलकर भौतिकवाद की ओर झुक गयी है। इसके लिये किसी प्रमाण की तह में जाने की आवश्कयता नहीं। भौतिकवाद से पनपे निकम्मेपन और सुविधापरस्ती ने हिन्दी कविता को दूषित कर दिया है। इस स्थिति ने जन्म दिया-तेवरी को। मगर तेवरी के उद्भव का यही मात्र कारण नहीं है।
तेवरी उन त्रासद स्थितियों की देन है जो समाज में भ्रष्ट आचरण, नैतिक पतन, कालाबाजारी व कुव्यवस्था आदि के रूप में व्याप्त है। यह आक्रोश की उग्रता गलत व्यक्तियों या वर्ग को साहित्यक भाषा में डाँटती ही नहीं, फटकारती भी है और आवेश में उनके मुखौटे तक नोंच डालती है।
पिछले कई वर्षों से कविता का तेवरी-आन्दोलन किसी न किसी मंच से मुखरित होता रहा है और तभी से यह प्रश्न उठते रहे हैं कि तेवरी, काव्यविधा ग़ज़ल का ही एक रूप है। इस भ्रान्ति को व्यावहारिक रूप से हल करने के लिये अनेक प्रकाशन सामने आये है। डॉ. देवराज व देवराज की पुस्तक तेवरीकी भूमिका में तेवरी को जिन सारगर्भित शब्दों में परिभाषित किया गया है, अर्थपूर्ण है।
चूंकि ग़ज़ल विगत दो तीन दशकों से जन-जन की जिस प्रकार चहेती बनी, उसे तेवरी प्रणेताओं को तेवरान ढँग से खारिज करने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प न था। यूँ तो तेवरी को मूर्त रूप में आने से पूर्व भी पंडित रामप्रसाद बिम्सिल’, अशपफाक उल्ला खां, साहिर, कैफी आजमी, फैज आदि अपने राष्ट्रवादी चिन्तन को ग़ज़ल रूप में कहा, किन्तु इससे ग़ज़ल अपना अर्थ खोती चली गई। अतः यह महसूस किया जाने लगा कि आक्रोश की इस साहित्यिक जुबान की अपनी ही एक विधा की जरूरत है, जो अपने नाम के अनुरूप हो। तेवरीशब्द ने इस आक्रोशमय अभिव्यक्ति को शीर्षक रूप में हल करते हुए सार्थक कर दिया।
आज काव्य की दूसरी विधाएँ जिस पथ से गुजर रही हैं, ऐसा लगने लगा है कि आधुनिक समाज कविता नाम से उकता गया है। एक तो फूहड़ हास्य-व्यंग्य ने कविता को इतना भ्रमित कर दिया है कि कुछ कालीदासी [कालीदास नहीं] लोग हास्य कविता को ही कविता मानने लगे हैं। ऐसा यहाँ [सिरसा] हुआ भी। एक बार कवि सम्मेलन में हँसने-हँसाने को ही कविता कह डाला। साहित्य के लिये निस्संदेह यह भावना-स्वप्न खतरनाक है।
कविता की अन्य विधाएँ इस अर्थप्रधान युग में अपने सार्थक मूल्य खो रही हैं  तो चिन्ता का विषय बनना स्वाभाविक ही है। तेवरी विधा कविता की एक मशाल लेकर जब से अवतरित हुई है, लोगों ने-समाज ने एक बार पुनः पुस्तक के पन्ने पलटने शुरू कर दिये हैं, क्योंकि कविता-साहित्य में अब तेवरी ही मात्र ऐसी विधा रह गयी है, जो ग़ज़ल के समान्तर चल सकती है और कवि के क्षोभ, कुंठा, विद्रूपता, संत्रास, आक्रोश, दमन, उत्पीड़न, हताशा, असंतोष व विद्रोह को सही अभिव्यक्ति दे सकती है। युवा कवि वर्ग [हृदय से युवा] जब सामाजिक विक्षिप्तावस्था का वर्णन करता है तो दिशा-देश सम्बन्धी ऐसे प्रश्न भी सामने आ जाते हैं, जिनसे सिद्धान्तहीन, भ्रष्ट समाज को उन्हीं की भाषा में झँकझोरा जा सके, लेकिन सभ्य भाषा का परित्याग न कर बैठे।
तेवरी गाली नहीं देती, शब्द-वाण चलाती है, उस समाज पर जो कानून और अधिकारों का अनाधिकृत  रूप से प्रयोग करते है। जन-भावना को ठेस पहुँचाते हैं। राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए संविधान के विपरीत जाते हैं। तेवरी उनके खिलाफ पैने हथियार का काम करती है। देवराजकी भी यह मान्यता है कि नयी परिस्थितियों में कविता में नया व सार्थक परिवर्तन आना चाहिए। तेवरी इस सार्थक परिवर्तन का ठोस आधार है
तेवरी शब्द के अन्तर्गत जिन व्याख्याओं की अभिव्यक्ति की गयी है, यह व्याख्या इसकी पृष्ठभूमि से की गई है। स्वयं तेवरी शब्द अपने वक्तव्य को इतने विस्तृत रूप से सार्थक नहीं करता। मगर यह मानने में संकोच नहीं है कि तेवरी-शब्द भावना से जुड़ा है। यह साहित्यिक आन्दोलन एक शोषण मुक्त समाज की संरचना को न केवल अपने अन्तर्मन की पीड़ा में अनुभव ही कर रहा है, बल्कि ऐसे समाज की कल्पना की प्रयोजना से, मौलिक भाव से आबद्ध भी है। मैं समझता हूँ समाज-विरोधी  तत्त्वों को मूल रूप से नष्ट करने में यह आन्दोलन व्यावहारिकता के शिष्ट दृष्टिकोण की वैधानिकता लेकर चले। अभी यह आन्दोलन जन-जन के आक्रोश का कंधा नहीं बन पाया है।
तेवरी को  एक लम्बे पथ से गुजरने की प्रतीक्षा है। अतः यह कहना समयपूर्व है कि प्रत्येक शोषित एवम् सही व्यक्ति की आवाज को इसका वरदहस्त मिल चुका है। मैं समझता हूँ, तेवरी को आखिर मानवतावादसे तो जुड़ना ही चाहिए। वादसे अभिप्राय यहाँ स्पष्ट है, तेवरी के क्रान्तिकारी विचारों को प्रत्येक तेवरीकार, तेवरी समर्थक, बलपूर्वक एक आवश्यकता मानता है। वर्तमान व्यवस्था का परिवर्तित स्वरूप हमें ठीक वैसे ही तय करना होगा जैसी तेवरी की व्याख्या तय है।

तेवरी का शिल्प, ग़ज़ल का शिल्प ही माना जाना चाहिए। बेशक यह सत्य है कि इस शिल्प की विषय सामग्री मौलिक है। उपरोक्त भावों से, जो कि परिचर्चा के प्रारूप के अन्तर्गत प्रदर्शित किये गये हैं, मैं बेवाक कह रहा हूँ कि तेवरी का यह भावात्मक आन्दोलन, आक्रोश की परिधि  को तोड़कर, अशिष्ट व भद्दी भाषा के गूढ़ प्रयोग के बीच उन्माद की स्थिति धरण न कर ले। हमें सभ्य रहकर ही अपनी अभिव्यक्ति करनी चाहिए। तभी एक सभ्य समाज की रचना को सार्थक कर सकेंगे।

तेवरी में ‘शेडो फाइटिंग’ नहीं + योगेन्द्र शर्मा

तेवरी में शेडो फाइटिंगनहीं 

+ योगेन्द्र शर्मा
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    कविता कभी भी इतनी सामयिक नहीं रही, जितनी कि आज। आज की कविता [ खासतौर पर तेवरी ] पहले की तरह आकाश में उड़ने का प्रयास न करके जमीन से जुड़ने का प्रयास करती है। आज की कविता समाज को उसका चेहरा दिखाती है। उसके चिंतन, उसके चरित्र का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है। कभी जन-सामान्य की पीड़ा बन जाती है तो कभी इस कुव्यवस्था के घने अन्धकार में आशा की एक नहीं किरण।
 ‘तेवरीनाम है-उस तेवरयुक्त छन्दबद्ध कविता का, जिसमें आकाश की बात न होकर, माटी सुगन्ध है। जिसमें पाउडर या सेंट की सुगन्ध न होकर किसी श्रमिक का पसीना है। तेवरी जनमानस की भावनाओं की सरल अभिव्यक्ति है। वह नहीं चाहती कि जब जनसामान्य कभी कविता पढ़े तो शब्द और अर्थ की क्लिष्टता में खोकर रह जाये।
आजकल नितान्त वैयक्तिक सोच की कविताओं की बाढ़-सी आ गयी है। कविता को चन्द साहित्यिक सेठों बनाम लेखकों की मानसिक अय्याशी बना देने का कुचक्र रचा जा रहा है। तेवरी कविता जन-सामान्य के बीच पैदा हुई इस खाई को पाटना चाहती है।
तेवरी उन कविताओं का विरोध करती है, जिन्हें पहेली का पाजामा पहना दिया जाता है। शब्दजालों का सृजन कर संप्रेषण का गला घोंट देना तेवरी का स्वभाव नहीं है। वह निन्दा करती है-छायावादियों की शेडो फाइटिंगका।
जब आदमी ही मर रहा हो तो पेड़-पौधों से बातें करना, हालात का मजाक उड़ाना नहीं तो और क्या है? जिस कविता का साधक और साध्य सर्वसाधारण हो, उसे ही तेवरी कहा जा सकता है। तेवरी सद्घोष है, आह्वान है, जेहाद है-
मैं आदमखोरों में लड़ लूँ,
तुझको चाकू बना लेखनी।
जो सरपंच बने बैठे हैं,
उन पे उंगली उठा लेखनी।
 [रमेशराज, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 50]
अथवा
क्रोध की मुद्रा बनाओ दोस्तो,
जड़ व्यवस्था को हिलाओ दोस्तो!
[ सुरेश त्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 40 ]
इतिहास गवाह है कि मानव जाति के शोषकों की संख्या और शक्ति, शोषितों की सम्मिलित शक्ति और संख्या से बहुत कम रही है। अस्तु अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये उन्होंने सदा छल और कपट का सहारा लिया। कभी भय और पाखंड के किलों में आम आदमी की चेतना को कैद कर दिया गया तो कभी शोषित में से ही कुछ लोगों को अपना पिट्ठू बनाकर स्वयं को जनता का, समाज का उद्धारक या मसीहा घोषित करा दिया गया। उत्पीडि़त जनता ने जब भी अपने ऊपर हो रहे दमन का विरोध किया, उसे नये-नये शब्दजालों में उलझा दिया गया। तेवरी जो जन्म से ही शोषितों की पक्षधर है |
तेवरी हर पाखण्ड और ढकोसले का विरोध करती है। वस्तुतः मानव-बुद्धि की सीमा जहाँ समाप्त होती है, वहीं से ईश्वर की सीमा प्रारम्भ हो जाती है, अर्थात् जहाँ से मानवचेतना लुप्त होने लगती है, वहीं से ईश्वरत्व का अस्तित्व शुरू हो जाता है। इसीलिये ईश्वरनाम का विचार इतना लचीला हो गया कि बुर्जुआ शोषक समाज ने इसे ही अपने शोषण का मूल आधर बना लिया। तेवरी हर उस साजिश का विरोध करती है जो मानव-चेतना को सीमित करे, कुंठित करे।
धार्मिक अंधविशवास पर चोट करते दृष्टव्य हैं तेवरी के कुछ तेवर-
लग रहा है आज हमको हर खुदा बहरा हुआ,
थक गये घंटे, सिसकती आरती अब देखिये।
[अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 19]
टूटे मंदिर पे कोई नहीं फटकता है,
पूजा और पूँजीवाद एक रंग हैं प्यारे।
 [योगेन्द्र शर्मा,अभी जुबां कटी नहीं, पृ.29]
तेवरी यह सत्य उजागर करती है कि इस देश की शिक्षा व्यवस्था उस लार्ड मैकाले की देन है-जिसे अंग्रेजी राज्य के लिए कुछ क्लर्क चाहिए थे, उसे अपने राज्य के लिए ऐसे पिट्ठुओं की जरूरत थी जो तन से भारतीय हों पर मन से अंग्रेज। आज के युवा को शिक्षा के नाम पर एक ऐसा ही बना-बनाया मिक्चर पिलाया जाता है। वर्षों की तपस्या के बाद उसे एक डिग्री मिलती है, जिसका अवमूल्यन न जाने कब का हो चुका है। रोजगार पर आधरित न होने के कारण अपनी शिक्षा का समुचित प्रयोग वह नहीं कर पाता।
एक दिशाहीन शिक्षा-प्रणाली ही है, जिसके कारण वह अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद अपने भाग्य को एक चैराहे पर खड़ा हुआ पाता है। उसे यह ज्ञात नहीं होता कि उसे किधर जाना है। दिशाहीनता के ही कारण अनेक प्रतिभाएँ कुंठित हो जाती हैं। आजकल एक युवा बेरोजगार युवक के हृदय में झाँकते तेवरी कुछ तेवर-
शहद लगाकर डिग्री को अब चाटिए श्रीमन्,
बेकारी की धूल यूँ ही फाँकिए श्रीमन्।
 [योगेन्द्र शर्मा, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.26]
दर-दर भटके शिक्षित यौवन,
कितना परेशान है भइया।
 [अरुण लहरी, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.11]
आज जब हम सामाजिक यथार्थ की बात करते हैं तो एक शब्द हम भुला नहीं सकते और वह शब्द है-महँगाई। बढ़ती हुई वैज्ञानिकता ने जहाँ जनजीवन को प्रभावित किया है, महँगाई ने मानवमूल्यों में ही फेर-बदल कर दिया है। आज की कमरतोड़ महँगाई में पैसे की अंधी दौड़ मची हुई है। पहले एक कमाने वाला बीस-बीस को खिला लेता था, आज हर व्यक्ति को अपनी रोटी-दाल के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। मानव-संस्कृति बदल चुकी है। तेवरी अपसंस्कृति का विरोध करती है |
घोर गरीबी में घर आया मेहमान भी किस तरह मुसीबत दिखाई देता है। द्रष्टव्य है उक्त यथार्थ को दिखलाती तेवरी का एक तेवर--
एक मुट्ठी अन्न भी हमको नहीं होता नसीब,
आजकल मेहमान का सत्कार कोई क्या करे।
[अजय अंचल ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 18]
तेवरी यह हालात देखकर दुखी होती है कि बढ़ती हुई महँगाई ने सर्वसाधारण को आर्थिक रूप से पंगु बना दिया है, वहाँ गिरती हुई कानून-व्यवस्था खौफ का कारण बनी हुई है। शाम के समय घर से बाहर हर नारी को अपने आभूषणों की, अपने सम्मान की चिन्ता मन में लगी रहती है। दिन-दहाड़े भरे बाजारों में, यहाँ तक कि न्यायालयों में, न्यायाधीश के सामने हत्याएँ हो रही हैं। सामूहिक बलात्कारों, हत्याओं, डकैतियों की बाढ़-सी आ गयी है।
हिंसक वातावरण निःसंदेह अकारण नहीं? क्या होगा उस खेत का जब उसकी मेंड ही उसे खाने लगेगी? रक्षक ही भक्षक हो गये हैं। कानून के रखवाले ही या तो स्वयं कानून तोड़ते हैं या दूसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं। थाने जो कानून और व्यवस्था के केन्द्र-बिन्दु थे, अब वही अपराधी  पालने लगे हैं। दृष्टव्य है उक्त यथार्थ को दर्शाती तेवरियों के कुछ तेवर-
1.चोरों के सँग मिले हुये हैं,
सारे पहरेदार सखी री!
{सुरेश त्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.35}
2. बाह रे जुर्म तुझे क्या कहिये,
हाय थाने भी न छोड़े साहिब।
[योगेन्द्र शर्मा, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.20]
3. इस तरह उनने भरा साहस सभी में यार अब,
हर शहर हर गाँव डाके पड़ रहे हैं आजकल।
[अरुण लहरी, अभी जुबां कटी नहीं ]
आजकल एक ओर जहाँ हत्यारों को हत्याओं की, डकैतों को डकैतियों की, बलात्कारियों को बलात्कार की खुली छूट है, व्यापारियों को भी इस बात की छूट मिल चुकी है कि वह अपनी वस्तु मनमाने दामों में बेचकर अपनी तिजोरी भर सकता है। वस्तुतः इस देश में हर पाँच वर्षों में आम चुनाव होते हैं और इन चुनावों में करोड़ों रुपया चन्दा एकत्रित किया जाता है। हर राजनैतिक पार्टी को अधिक से अधिक चन्दे की आवश्यकता महसूस होने लगती है और यह चन्दा इसी व्यापारी वर्ग से आता है। चुनाव में एक लाख रुपये चन्दे के देने के बाद वही व्यापारी दस-बीस लाख की चोरी का हकदार हो जाता है।
हर पूँजीपति को आजकल राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है और चोरों के पूँजीपति तो राजनीतिज्ञों की टकसाल बने हुए है। गरज यह है कि पूँजीवाद और राजनीति का गठबन्धन  भी इतना दृढ़ और उघड़ा हुआ नहीं था जितना कि आज। प्रस्तुत है इस यथार्थ को इंगित करते हुए तेवरी के कुछ तेवर-
1. वही छिनरे वही डोली के संग हैं प्यारे,
देख ले ये सियासत के रंग हैं प्यारे।
[योगेन्द्र शर्मा ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ.29]
2. है हंगामा शोर आजकल भइया रे,
 हुए मसीहा चोर आज भइया।
 [सुरेश त्रास्त ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ.39]
3.संसद में है लोग भेडि़ए,
ये क्या मैंने सुना लेखनी।
 [रमेशराज ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 55]
यह भी एक सार्वभौमिक सत्य है कि जब दमन अपनी चरम सीमा पर होता है तो कहीं न कहीं विद्रोह की आग भड़कती ही है। लोग डरपोक और सहिष्णु सही, कहीं न कहीं आक्रोश का ज्वालामुखी फूटता ही है। प्रस्तुत है उक्त तथ्य को उजागर करने वाले कुछ तेवर-
महाजनों को देता गाली,
अब के होरीमिला लेखनी।
 ‘गोबरशोषण सहते-सहते,
नक्सलवादी बना लेखनी।
 [रमेशराज ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ.53]
दरअसल साहित्य-सृजन एक साधना का विषय है। जब-जब यह व्यावसायिकता से जुड़ जाता है, जब-जब यह जीविकोपार्जन से जुड़ जाता है, तब-तब साहित्य विष से रिश्ता गाँठ लेता है और यथार्थ से मुँह मोड़ लेता है। वह सरकार की लल्लोचप्पी करके पदक बटोरने में लग जाता है और एक भाट का चोला पहन लेता है। तालियों की गड़गड़ाहट से बहुत दूर, व्यावसायिकता से परे आज तेवरीकार ऐसे साहित्य के सृजन में लगे हुए हैं जिसमें जनहित की भावना हो, सत्य बोलने का जोखिम हो।
तेवरी समसामयिक परिस्थितियों की देन है, अस्तु यथार्थ की भाषा भी है। आज परिस्थितियाँ सोचनीय हैं। दमन और शोषण अपनी चरम सीमा पर है, इसीलिए तेवरी को आक्रामक, जुझारू और सपाट बनाया गया है। वह निरन्तर संघर्ष और निर्माण में विश्वास रखती है। अंत में तेवरी के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कुछ तेवर-
ग़ज़ल की बात नहीं ये कोई,
हैं ये तेवरी के कोड़े साहिब।
[योगेन्द्र शर्मा ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ.27]
मजूर तेवरी, किसान तेवरी,
गुलेल तेवरी, मचान तेवरी।
 [ऋषम देव शर्मा देवराज’]


सामाजिक बेचैनी का नाम है--'तेवरी' + अरुण लहरी

सामाजिक बेचैनी का नाम है--'तेवरी


+ अरुण लहरी
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    समाज सदैव परिवर्तनशील रहा है। जो कल था, वो आज नहीं। जो आज है वो कल नहीं रहेगा। यह ध्रुव  सत्य है कि जब-जब भी समाज में परिवर्तन हुए हैं, मानव के रहन-सहन विचारों आदि में भी परिवर्तन आया है। आदिम काल में हमारे पूर्वजन नंगे रहते थे, लेकिन आज ऐसा नहीं है। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ है, हमारे सोच, चिन्तन और विचारों में भी शनैः-शनैः परिवर्तन आया है। जैसा कि सभी जानते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है, इस प्रकार जिस युग में जैसा समाज था वैसा ही साहित्य रचा गया। वैदिक काल में  जो साहित्य रचा गया, उसमें ध्रर्म  प्रधान था। उस काल में ध्रर्म  की जड़ें  बहुत गहरी थीं। यदि हमें किसी काल विशेष की अवस्था का, उसकी उन्नति-अवनति, आचार-विचार, ज्ञान-विज्ञान संगठन-विघटन का सही चित्रा पाना अभीष्ट हो तो, हमें चाहिये कि उस समय के साहित्य का अवलोकन करें। यदि हम अपने उत्कर्ष-अपकर्ष, उत्थान-पतन, जय-पराजय, गुण-अवगुण एवं जीवन-दर्शन का यथातथ्य विवरण अपने इतिहास से प्राप्त करना चाहें तो वैदिक साहित्य से आरम्भ करके लौकिक-संस्कृति साहित्य, पाली-साहित्य, प्राकृत साहित्य, अपभ्रंश साहित्य और मध्य कालीन तथा आधुनिक प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य का अध्ययन करना होगा। हमारा समाज अपनी समस्त विशिष्टताओं और दुर्बलताओं के साथ वहाँ चित्रित मिलेगा।
    साहित्य एक ओर जहाँ सामाजिक-परिस्थितियों का चित्रण करता है, वहीं दूसरी ओर उन परिस्थितियों को प्रभावित भी करता है। वस्तुतः साहित्य और समाज निरंतर एक दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं और करते रहेंगे। जहाँ सामाजिक स्थिति, सामाजिक रचना के लिये सामग्री प्रदान करती है, वहीं साहित्य समाज की गतिविधियों  में परिवर्तन और क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करता है। इतिहास साक्षी है कि साहित्य ने सदैव समाज को बदला है। फ्रांस  की राज्यक्रान्ति वाल्टेयर जैसे साहित्यकारों के प्रयत्नों का परिणाम थी। प्रेमचन्द, भगतसिंह, बिस्मिल, अशपफाक, वंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, भारतेन्दु हरिश्चन्द आदि के साहित्य ने भारतीय स्वतंत्राता संग्राम की क्रान्ति में नये प्राण पफूँके। समाज में जैसे-जैसे अन्याय, शोषण, अत्याचार बढ़ा, ठीक वैसे ही साहित्य की सीमाएँ बढ़ीं, अभिव्यक्ति के कौशल बढ़े। वह कविता रुचिकर मानी जाने लगी जिसमें या तो भावविभोर करने की शक्ति रही हो या बुद्धि  को झकझोर देने की।
हमारा राष्ट्रीय-जीवन राजनीति के क्षेत्र में अपना संकल्प पूरा करे या न करे, हमारी कविता अभिषप्त जीवन के स्वर्ण पिंजर से निकलकर जनजीवन के समीप पहुँचती गयी है। उसका चरित्र आम आदमी के चरित्र से एकाकार हो गया है और उसे अभिव्यक्ति के क्षेत्र के जनवादी संस्कारों की उपलब्ध हुई है। समकालीन कविता जन साधारण को निकट तक पहुँचाने, उसके दुःखदर्दों, भूख, त्रासदी, शोषण में हाथ बँटाने और उसे सही गलत को पहचान कराने के लिये अत्यधिक  बेचैन है और उसी बेचैनी का नाम है-‘तेवरी
- तेवरी अपने भीतर शोषण, अत्याचार, उत्पीड़न, भूख, त्रासदी और चारित्रिकपतन से उत्पन्न हुआ एक ऐसा तेवर छुपाये हुये है जो कहीं न कहीं सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करने में जुटा है।
 - 'तेवरी' राशन के लिये लगे उस पंक्ति के लोगों का बयान है जिसे  दो जून की रोटी की जुगाड़ के लिये अपनी सारी उम्र मर-खपकर गुजारनी पड़ती है।
 - तेवरी गरीब की कमीज को सींता हुआ सुई और धागा है।
 - तेवरी गरीब की जवान होती हुई बेटी है, जिस पर दानवों की पैशाचिक दृष्टि गड़ जाती है।
 - तेवरी बेटी के लिये दहेज न जुटा पाने वाले बाप के आँसुओं की करुण-गाथा है।
 - तेवरी गरीब के चूल्हे पर सिंकती हुई वह रोटी है, जिससे किसी भूखे को क्षुधा  शांत होनी है।
 - 'तेवरी' ऐसा धर्मयुद्ध  है, जिसका रणक्षेत्र सामाजिक विकृतियों और विसंगतियों से युक्त समाज है।
 - 'तेवरी' समाज को मीठे सपनों में सुला देने वाली कोई गोली नहीं, जिसे आसानी के साथ निगला जा सके, बल्कि कसैली बेस्वाद गोली की तरह रुग्ण मानसिकता पर प्रहार करती हुई समाज को एक स्वस्थ पुष्ट चरित्र प्रदान करती है।
 - तेवरी वसंत का उन्मादक रूप नहीं निहारती, बल्कि उस पर टिकी आशाओं, सम्भावनाओं, विश्वासों के साररूप की नींव डालती है।
 - तेवरी शांत जल के ऊपर विहार करते हुए हंसों के सौंदर्य को नहीं निहारती, बल्कि बहेलिये के तीर से घायल हंस की आँखों में छुपी वेदना को टटोलती है।
 - तेवरी नारी को साकी के रूप में नहीं चाहती, बल्कि स्वार्थी समाज द्वारा उत्पीडि़त, शोषित और छली हुई नारी की पीड़ा को अभिव्यक्ति देती है।
 - तेवरी किसी शराबी के अंग संचालन-परिचालन पर ध्यान केन्द्रित न कर, अपना सारा सोच उसकी विकृतियों पर लगाती है।
 - तेवरी शमा और परवाने की दास्तान कहने में विश्वास नहीं रखती, बल्कि गाँव और शहर के बूढ़े निर्धन रामू काका के चेहरे पर आयी झुरियों का इतिहास बताती है।
 - तेवरी किसी एक आदमी का आत्मालाप नहीं, बल्कि उस भीड़ का बयान है जिसे रोजी-रोटी और नीड़ की तलाश है।
 - तेवरी उन हाथों को प्यार और सहानुभूति से निहारती है, जिन पर मेंहदी रचने के बजाय छाले रच जाते हैं।
 - तेवरी चाँदनी में नहायी हुई नारी को देखकर प्रपफुल्लित नहीं होती, बल्कि लू में तपते हुए जिस्म को देखकर दुःखी अवश्य होती है।
 - 'तेवरी' गुलाबी होठों का रसपान नहीं, दवा के अभाव में दम तोड़ते हुए खुश्क होठों का भान है।
 - 'तेवरी' बलत्कृत नारी के नंगे तन को देखकर मुँह बिचकाकर नहीं चलती, बल्कि अपने तन का एक अदद वस्त्र भी उतार कर उसका नंगा जिस्म ढाँप देती है।
 - 'तेवरी' चीते की चपलता और उसके सौन्दर्य का बयान नहीं करती, बल्कि उसकी विश्वासघाती प्रवृत्ति को उजागर करती है।
-    'तेवरी' इस आदमखोर व्यवस्था के प्रति क्रान्तिकारी सिद्धान्तों के व्यावहारिक रूप को अमली जामा पहनाती है।
-    तेवरी शीशे के मसीहाओं पर सच्चाई का पत्थर उछालती है।
 - तेवरी आगे बढ़ती हुई सेना के जोश का बयान नहीं, बल्कि धरती की सूनी होती हुई गोद का कन्दन है।
-    तेवरी सामाजिक यथार्थ और चेतना के आग्रह का स्वर है।
 - तेवरी अत्याचारी के खंजर से टपकती हुई एक-एक बूँद का हिसाब माँगती है।
 - तेवरी स्वस्थ, शोषणविहीन समाज की अनिवार्यता है और यही तेवरी का सौन्दर्य है।

+ अरुण लहरी