Friday, March 18, 2016

है कोई तेवरी वाला जो... +शम्भुदयाल सिंह ‘सुधाकर’

 है कोई तेवरी वाला जो...


+शम्भुदयाल सिंह सुधाकर
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    तेवरी को मैं साहित्य का ही नहीं, साहित्यकार का भी समर्थ पक्ष मानता हूँ। किन्तु विधा और वाद के स्वरूप में इसे स्वीकारने का कायल नहीं। तेवरी की आत्मप्रज्ञा को अपने में पूर्णरूपेण सँजोये कबीरआज भी हमारे बीच अमर हैं। जब भी समाज में धर्म, व्यवस्था और कर्म विपाक में सिद्धान्तों की लचरता आई है, कलुषता को रचनाकार ने ललकारा है। परन्तु तेवरी को अपने आचरण  में उतारना उतना आसान नहीं, जितना एक विधा  और वाद बनाकर कुछ पिछधरों की एक भीड़ इकट्ठी कर उसे हंगामे का एक स्वरूप देना। यह नितांत कटु सत्य है कि हंगामे से आज तक कोई मसला हल नहीं हुआ। हाँ एक, हजारों आवाजों की मिश्रित आवाज [ जिससे कोई अर्थ निकलने का नहीं ] जरूर आकाश को भेदती रह सकती है।
तेवरी को मैं साहित्य-सर्जना की साधना का पूर्ण बिन्दु मानता हूँ- जहाँ पहुँचकर कवि स्वयंभूकी स्थिति को प्राप्त करता हुआ-समाज व्यवस्था और विकृति के प्रति सबकुछ कहने का अधिकारी हो जाता है-उसकी वाणी में वह शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो युगान्तरकारी परिवर्तन को नये स्वर ही नहीं देती, वरन् मानव के हृदय-मंच को नई सज्जा और नये तेवर [ प्राणवत्ता ] प्रदान करती है। इसके लिए साहित्य की साधना कुछ उसी स्तर पर वांछित है, जिसे योग या आत्म-नियन्त्रण कहते हैं। सर्वप्रथम अपने ही दुराचरण के प्रति तेवरी दृष्टि डालना इसके लिए परमावश्यक है।
कहीं-किसी ओर से आचरण की रंचमात्र कमी तेवरी बरदाश्त नहीं करती। पर वाद और विधा के बतौर तेवरी को स्थापित करने का लक्ष्य अपनेआप में एक दुराचरण ही है। भाई, कविता-कविता है-सृष्टि की आदि से वह अनगिनत रंगों में, नानाविध शिल्पों में, मानव में मानवता का विधायन करती आयी है और इसके साथ ही जो इससे भी महत्वपूर्ण और प्राप्त है, उस इन्द्रियातीत अनुभव को भी शब्द श्रंखला में आबद्ध करती रही है। अशब्द को शब्द देना साहित्यकार के अभिनव शोध की कसौटी रही है।
भारत का पारम्परिक साहित्य स्वांतः हिताय तेवरी का पक्षधर कभी नहीं रहा। आज यह साहित्य का तिरोभाव ही तो कहा जायेगा कि वाद, खेमे और विधा का झंडा उठाये, अग्रिम पंक्ति में छाती खोले, बाल बिखेरे, कफन का उत्तरीय कंधे पर डाले साहित्यकार को जब अपना निहित स्वार्थी लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तो वही सारा आडम्बर उतार डालता है और जिसका विरोध् करता है उसी का गुण गाने लगता है। साहित्यकार के आचरण की ऐसी घिनौनी मिसालें जनमानस से साहित्य को आमूल काटती जा रही हैं। आचरण के स्तर पर गिरा हुआ आज का साहित्यकार जिसके पास आत्मबल नामक तत्त्व ही समाप्त हो चुका है-किस बूते पर तेवरी को अपनाने में समर्थ हो सकता है?
योगी को योग, तपस्वी को तप और कवि को तेवरी सिद्ध होती है। यह साहित्य साधना की अंतिम परिणति है-जिसे नव अंकुरों ने अपने साथ जोड़कर, साहित्य को [ कविता को तो क्या नष्ट करेंगे ] अपने व्यक्तित्व को नष्ट करने का पूरा-पूरा इंतजाम कर लिया है।
मैं कहता हूँ- है कोई तेवरीवाला, जो अपने आचरण में तेवरी को उतार ले। इसके लिये सर्वप्रथम अपनी लोलुप इंन्द्रियों पर ही तेवरी दृष्टि डालनी होगी-और उस दृष्टिपात से व्यक्तित्व का ढाँचा ही जलकर राख हो जायेगा-‘आपा छाँडि़ जीवित मरै, तब पावै करतार’, तेवरी को कुछ इसी प्रकार पाया जा सकता है।
किसी के विरोध में क्यों न ऐसा जेहाद छेड़ा जाये कि हम मानव की एक-एक इकाई में आमूलचूड़ परिवर्तन कर देंगे। मानव-मानव में व्यक्ति की गरिमा भर देंगे। हम समझायेंगे कि क्या तुम मात्र अर्थ, भोग और संग्रह के लिए ही पैदा हुए हो मानव! तुम्हारी लिप्सा की यह अंधी दौड़ व्यर्थ है। वह दिन निकट है जब तुम्हें यह सब छोड़ना होगा। जीवन के सहज आनन्द को छोड़ तुम अभिमान का आवरण ओढ़ने पर क्यों तुले हो?’ पर इस सबके लिये साहित्यकार को स्वयं अपनी कसौटी पर अपने को ही कसना होगा, तब कहीं जाकर समग्रता में आचरण की सभ्यता का जन्म होगा।
मेरे विचारों के प्रतिपक्ष में तेवरीकारों द्वारा यह भी कहा जा सकता है कि आज की जैसी विषम परिस्थिति कभी नहीं रही-जहाँ बुद्धिजीवी ठोकरें खाता है और मूढ़ उस पर शासन करता है। आचरणवान सिकुड़ा-सिमटा बैठा है और भ्रष्ट की पताका फहरा रही है, यही न! यह स्थिति पूर्व में भी ठीक ऐसी ही रही है जब कबीर को घोड़े के पीछे बाँधकर खींचा गया, तुलसी को प्रताडि़त किया गया और रहीम को भाड झोंकने के लिए बाध्य किया गया। क्या इन कवियों की कविता इन संघर्षों के प्रति तिरोभाव को प्राप्त हुई? कभी नहीं। वे सब मर गये जिनकी पताका लहराती थी और कबीर, तुलसी, मीरा, जायसी, सूर आज भी जिन्दा हैं।
कवि के आचरण में कविता की साधना सर्वदा त्याग की साधना रही है। इसलिए मीरा ने राणा के प्रति कभी तेवरी नहीं लिखी, तुलसी ने अकबर को अपशब्द नहीं कहे, कबीर ने उस समय के शहंशाह को गाली नहीं दी और जायसी केवल इतना कहकर रह गये थे-‘मोहि का हँसेसि कि कोह रहि
मैं इतना ही कहूंगा कि हे कवियो-है तुममें कोई जिसने कुदृष्टि के लिए अपनी आँख को ललकारा हो। नाना विध विकारों से युक्त अपने मन को सचेत किया हो। तेवरी के लिये आवश्यक है-सबसे पहले अपनी शारीरिक और मानसिक व्यवस्था जो हर इकाई में तिरोभाव को प्राप्त कर चुकी है, के विरुद्ध  जेहाद उठाया जाये।
तिरोभाव से मुक्त हुए बिना केवल विधा और शिल्प के बतौर तेवरी लिखी जायेगी, मात्र लिखने के लिए, तो समझ लो चेहरा खिँचा का खिँचा रह जायेगा, मुट्ठी बँधी  की बँधी रह जायेगी, मुँह अनर्गल प्रलाप के लिए बस खुला रह जायेगा और कवि कंकाल मात्र रह जायेगा। कविता, वह तो कभी नहीं मरी और कभी नहीं मरेगी। वाद मर जायेंगे, खोये काल की आँधी में उड़ जायेंगे, घटक फूट जायेंगे और इनसे जुड़े लोगों का कोई नामलेवा न रह जायेगा।

अपने जीवन के चालीस वर्षों के दौरान मैंने भूखी पीढ़ी, अस्वीकृत कविता, मशानी कविता, अगीत, अकविता और नकेनवाद जैसे वादों को मरते और जीते देखा है। कविता अपनेआप में इतना विराट आयाम समेटे है कि उसे तेवरी जैसे वाद, विधा और विचारों की छोटी सीमा में बाँधकर कवि स्वयं अपने की ही छोटा कर रहा है।

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