Friday, March 18, 2016

ग़ज़ल ने रंगीनियों में श्रीवृद्धि की है

 ग़ज़ल ने रंगीनियों में श्रीवृद्धि की है 
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तेवरी आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर परोक्ष स्पष्टता की शर्त होना आवश्यक है। हमें सैद्धान्तिक तौर पर इस बात को स्वीकारने में कतई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि आन्दोलनों से साहित्य समृद्ध होता है और उसके विकास को गति मिलती है। वैचारिक मतभेद और विरोध के वातावरण में रचनाशीलता को एक नया निखार हासिल होता है। साहित्य गतिरोध और जड़ता को तोड़कर जि़न्दगी के और करीब आता दिखायी देता है। लेकिन यह आन्दोलनों का केवल एक पक्ष है और ऐसा तभी मुमकिन होता है जब किसी आन्दोलन के आधारभूत वैचारिक आग्रह बहुत स्पष्ट हों और उस वैचारिकता के रचनात्मक प्रतिफलन की दृष्टि से भी वह एक सुदृढ़ आधार पर खड़ा हो। अतः जरूरी है कि वैचारिक ग्राह्यता और रचनाशीलता के प्रति तेवरीकारों को काफी सजग रहना होगा।
तेवरी की पृष्ठभूमि को भाई रमेशराज स्पष्ट करते हुए अपना मत जिस प्रकार प्रकट करते हैं, उससे यह तो आभास हो जाता है कि तेवरी का वैचारिक आग्रह बहुत कुछ युवावर्ग से ही सम्बन्धित है। उग्रता, तत्परता, निरंतरता, नकारने की दृढ़ता, कुंठा को काट फैंकने की कोशिश का प्रतिफलन ही तेवरी है। समसामायिक वातावरण की आवश्यकता के साथ ही साथ परिस्थितियों को उभारने में तेवरी का लक्ष्य बेधित रहा है। खासकर राजनीतिपरक दुर्गंधता । इस वैचारिक आग्रह के साथ ग़ज़ल होने के खतरे हैं, जो चुनौती स्वरूप खड़े हो सकते हैं।
    आशा गुप्ता का मानना है-‘शिल्प के स्तर पर आयी साम्यता विवादास्पद नहीं है किन्तु यदि वैचारिक स्तर पर तुलना की जाए तो समकालीन ग़ज़ल और तेवरी में बहुत कुछ साम्यता है। परिवेश को स्वीकारने में आज ग़ज़ल भी सामर्थ्यवान है किन्तु तेवरी से उसकी वही भिन्नता है जो एक कहानी और सत्यकथा [अपराध् कथा] में है। कहानी का वैचारिक परिवेश और अपराध कथा का वैचारिक परिवेश जितना भिन्न है, उतना ही ग़ज़ल और तेवरी का।
ग़ज़ल के मुकाबले तेवरी के लिये एक सीमा काम करती है। तेवरी ग़ज़ल में घुस सकती है, किंतु ग़ज़ल का तेवरी में घुसना अतिकमण होगा जो नकारात्मक होगा। यही वजह है कि तेवरी में सब कुछ होते हुए भी आक्रोशजनित वैचारिक आग्रह है, जबकि ग़ज़ल में इस तरह की शर्ते जरूरी नहीं है। अपने जन्मकाल से ग़ज़ल ने रंगीनियों में श्रीवृद्धि की है। इस हेतु ग़ज़ल, तेवरी के एकदम निकट होते हुए भी बहुत दूर है, अंतरंगता के नाते से।
    डॉ. हरिमोहन कहते हैं-‘तेवरी नाम की सार्थकता विवादास्पद है। अगजलभी ऐसा ही तथाकथित आंदोलन था.. हिन्दी कविता भी तो प्रारम्भ से ही दरबार की चीज रही है। क्या कविता को दरबार की चीज मानकर कुछ कहना होगा?’
    कविता को दरबार की चीज मानकर यही कहा जा सकता है कि तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवेशगत परिस्थितियों का अवलोकन एक बार पुनः कर लिया जाये, क्योंकि लेखन का समकालीन संदर्भों को साथ रखकर ही मूल्यांकित/रेखांकित किया जाना श्रेयस्कर होता है। 
यदि आप यथार्थवाद से प्रभावित होने की अपेक्षा रखते हैं-लिखते हैं तो चौराहे पर हुए दंगे में एक-दो बार लाठियाँ झेलकर हो दंगे की भयावहता और आतंक की सार्थक अभिव्यक्ति अधिक सुशक्तता से कर सकते हैं। अपनी प्रेमिका के करीब बैठकर प्रेमप्रसंग करते हुए दंगे के लिए पृष्ठ रँगना यदि कोई सजग समीक्षक उचित ठहरा देता है तो तेवरी की अपेक्षा ग़ज़ल को अधिक सशक्त विधा मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होगी।
कुल मिलाकर स्थिति यह हो जाती है कि विधा का महत्व रेखांकित करने के पूर्व विधा  के उपजने की मजबूरी को ओर ध्यान दें। यहाँ यह भी उल्लेखनीय होगा कि भाई रमेशराज का तेवरी के लिए तत्कालीन कवियों जैसे तुलसी, बिहारी, घनानंद बगैरह-बगैरह को दोषी ठहराने का नजरिया उपयुक्त नहीं है। तेवरी का महत्व प्रतिपादित करते समय यह सोचना बहुत जरुरी है कि हमें इतिहास लिखना है, पुनरावृत्ति नहीं करनी है। दिल्ली प्रेस की भांति हिन्दी काव्य के आधार स्तम्भों का मखौल नहीं उड़ाना है। इस तरह के नजरिए साहित्य की विधाओं को कहीं नहीं ले जाते, वरन् पीछे धकेल लाते हैं और व्यर्थ ही अप्रिय विवादों के कठघरे में ला खड़ा करते हैं।
    साथ ही हम कदापि यह नहीं भूलें कि अपने सामाजिक, राजनीतिक विचारों और समूची मानसिकता को उसकी सार्थकता के सन्दर्भ में रेखांकित किए बिना किसी नये आंदोलन की अगुआई की महत्वाकांक्षा दुर्भाग्यपूर्ण ही समझी जानी चाहिये। वरना कुछ खतरे पैदा भी होते हैं। बहरहाल इस तरह के दौर से गुजरने के पहले यह जान लेना भी जरूरी है कि इसके पीछे कितनी सर्जनात्मक ऊर्जा हमें निरंतर देनी है, वरन् कुछ लोग इसी बहाने भी अपनी रोटी सेंककर खाते हुए बाजू से गुजर जायेंगे और हम फिर भूखे ही रह जाने के लिए मौजूद रह जायेंगे।
जो लोग हर आंदोलन के साथ हो लेने की सुविधाजनक स्थिति में होते हैं, वे वस्तुतः किसी के भी साथ नहीं होते, स्वयं अपने साथ भी नहीं। समय का एक बहुत छोटा-सा टुकड़ा भी इस बात को खूब अच्छी तरह स्पष्ट कर देता है कि ऐसे लोगों के साथ किस किस्म का सलूक होना चाहिये। तेवरी के पीछे भी साजिशों का उद्भव होगा, इसमें दो राय नहीं। किंतु इसके लिये स्वयं हमें तैयार होना होगा कि हम समय का एक बहुत छोटा-सा टुकड़ा भी इनके लिए अवश्य निकालें जो मधुरेश के अनुसार-‘अपने किस्म का सलूक करेगा
जो लोग अभी भी  संदेहास्पद बयान दे रहे हैं, उन पर क्या विश्वास किया जाये कि वे तेवरी के संक्रमण काल में तोड़ेंगे नहीं। वस्तुतः ऐसे किसी भी किस्म के निराशावादी दृष्टिकोण और उसके प्रेरकों को बाजू से गुजर जाने के लिए भी हमें एक गली सुरक्षित रखती होगी।
बहरहाल तेवरी को लेकर अपच्य कथ्य विवाद हमारे सामने न आएँ, ऐसे प्रयास होना चाहिये। किन्तु यदि आ भी जायें तो उसे हटा लेने की क्षमता हममें होनी चाहिए। इस जरा से अपच्य की खातिर हम अपने भरे पूरे पेट को लेकर किसी डाक्टर के पास जाएँ और पचवायें, इससे बेहतर है कि अपच्य को खुद ही नकारें, किन्तु शालीनता की सीमा में। 


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