Friday, March 18, 2016

' तेवरी-पक्ष ' की अधिकांश रचनायें भी बेसीकली ‘ग़ज़ल’ +कैलाश पचौरी

|| ' तेवरी-पक्ष ' की अधिकांश रचनायें भी बेसीकली ग़ज़ल ||

+कैलाश पचौरी
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मैंने रमेशराज के सम्पादन में प्रकाशित तेवरीपक्षके कुछ अंक देखे हैं और उनके बावत पाठकीय प्रतिक्रिया से भी अवगत होता रहा है। मसलन एक आम प्रतिक्रिया यह रही कि आपने यह तेवरीनाम ही क्यों चुना है। मैं भी सोच रहा था कि आपको एक पत्र लिखूँ और मालूम करूँ कि इसके पीछे आपकी सही मंशा क्या है, लेकिन वैसा हो नहीं पाया।
जहाँ तक पत्रिका के नामकरण का प्रश्न है यदि इसका नाम नये तेवररखा जाता तो क्या बुरा था। क्योंकि ग़ज़ल को चर्चित और प्रतिष्ठत होने के लिये जिन तेवरों की दरकार थी वे तो पूर्व में ही सर्वश्री दुष्यन्त कुमार, महेश अनघ, भवानी शंकर, शहरयार, आशुफ्ता चंगेजी आदि द्वारा दिये जा चुके हैं। लेकिन नाम-परिवर्तन जैसी जरूरत उन्होंने भी महसूस नहीं की। उसमें एक नया क्रिएट करते हुए अपने डिक्शन को माडरेट करने की कोशिश अलबत्ता जारी रखी।
बात को थोड़ा स्पष्ट किया जाये तो ग़ज़ल की भाषा का रंग और उसका ट्रेडीशनल स्ट्रक्चर कायम रखते हुए भी इन लोगों ने कथ्य की जमीन पर बहुत कुछ अपनी ओर से जोड़ना चाहा और वे इसमें कामयाब भी हुए। बुनियादी ढाँचे में रद्दोबदल किये बिना नाम-परिवर्तन मेरे विचार से एक बहुत ही भौतिक किस्म की घटना है, जो स्पष्टतः व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का संदेह लोगों के मन में उत्पन्न कर सकती है जबकि भले आपके इरादे वैसे न हों।
आपने अपने पर्चे में लिखा है कि तेवरी का ग़ज़ल से न तो कोई साम्य है और न विरोध ही। आपका यह कथन भी पूरी तरह बेवाक तथा सच नहीं है। यह बिल्कुल वैसा ही है कि नीरज कहें कि उनकी गीतिकाउर्दू ग़ज़ल से भिन्न है जबकि उनकी ग़ज़लों [या गीतिकाओं] की टैक्नीक पूर्णतः उर्दू टैक्नीक ही है। फिर भी हिन्दी पत्रिकाओं में अपने वैशिष्ट्य [बिल्कुल अनावश्यक] कायम करने की वजह से उन्हें गीतिकालिख दिया गया।
तेवरी-पक्ष की अधिकांश रचनायें भी बेसीकली ग़ज़लके फार्म में ही हैं। कमोवेश उनका लहजा भी वही है। उन्हें दोबारा पढ़ते हुए भी यह समझ में नहीं आता कि उन्हें उर्दू गजल से किन आधारभूत बिन्दुओं के संदर्भ में अलग किया जा सकता है। यह सम्भव है कि तेवरी-पक्षकी गजलें ज्यादा सशक्त, सटीक एवं मारक हों। उसमें निष्ठावान रचनाकारों का ही चयन किया गया हो। लेकिन सिर्फ इस वजह पर ही तो हम उन्हें एक नई विधा  [बकौल तेवरी-पक्ष] का उद्गम नहीं मान सकते।
ग़ज़लका जहाँ तक सम्बन्ध है, मैं यह मानता हूँ कि मूलतः यह उर्दू का छंद है, ठीक वैसे ही जैसे हम कहें कि दोहा हिन्दी का छंद है। पाकिस्तान की उर्दू शायरी में इन दिनों दोहे खासतौर पर लिखे जा रहे हैं। और सूक्ष्म जाँच-पड़ताल करने पर उनमें खालिस हिन्दी रंग अलग से देखा जा सकता है। यह एक दिलचस्प पहलू है कि भारत के उर्दू शायर हिन्दी शब्दों का प्रयोग करने पर आमतौर से कतराते हैं [जबकि हिन्दी कविता में उर्दू शब्दों की भरमार है] लेकिन पाकिस्तान की उर्दू शायरी में भाषाई विभेद किये बिना हिन्दी शब्दों का उपयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। यह बात अनेक उदाहरण देकर सिद्ध की जा सकती है। ठीक ऐसे ही जब हिन्दी रचनाकार ग़ज़ल लिखता है तब हजार कोशिशों के बाद भी उर्दू रंग छूटता नहीं। किसी को भी देख लीजिए आप, चाहे वे बलवीर सिंह रंग, बाल स्वरूप राही, दुष्यन्त कुमार हों या गोपाल दास नीरज। बरसों लिखने तथा छपने के बाद भी हिन्दी ग़ज़ल’  जैसे कोई प्रतिष्ठावान विधा की सरंचना नहीं कर पाये।
यह माना जा सकता है कि ग़ज़लउर्दू शायरी पर एक लम्बे अर्से तक छायी रही है और कमोवेश आज भी छाई हुई है, यह बात अलग है कि सृजनात्मक लेखन के दृष्टिकोण से अब उसका केन्द्रीय महत्त्व नहीं रह गया है। इन दिनों नज्म जहाँ ग़ज़ल पर भारी पड़ती है। साहिर की गालिब की मजार परतथा ताज महलजैसी नज्मों से गुजरते हुए यह स्मरण भी नहीं रहता कि उन्होंने ग़ज़लें भी लिखी हैं। गुलजार, अमृता प्रीतम, सरदार जाफरी, कैफी आजमी की नज्मों ने उर्दू शायरी की आध्ुनिकता बनाये रखी है। वर्ना आप  बतलाइये कि उर्दू की नयी पीढ़ी में कोई ऐसा भी ग़ज़लकार है जिसे जिगर, जौक और मोमिन जैसी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि मिली हो?
समकालीन भारतीय साहित्यके पिछले अंक में बशीर बद्र की कुछ ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं। आप जानते हैं कि बशीर बद्र का नाम उर्दू के आध्ुनिक ग़ज़लकारों में सिम्बालिक इम्पार्टेन्स का है। सोचा था गजलों में कोई गैरमामूली बात होगी लेकिन पढ़ते हुए लगा कि वही आम शिकायत उनके यहाँ भी मौजूद है, दस ग़ज़लों में से आठ यूँ ही-दो उल्लेखनीय। फिर दो में भी ऐसा नहीं कि ग़ज़ल के सभी शेर एक से वजन के हों। तीन शेर बहुत ऊँचे तो दो फुसफुसे।आपको यह मानना होगा कि ग्रापफ का यह उतार-चढ़ाव ही ग़ज़ल के प्रति एक अजीब सी वितृष्णा भर देता है।
लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ग़ज़लों की सृजनात्मकतासे इंकार कर रहे हैं। [ग़ज़ल संग्रह शीघ्र प्रकाश्य] नया विकल्पमें प्रकाशित उनकी एक प्रसिद्ध  ग़ज़ल का एक शेर कोट कर रहा हूँ। आप देखिये सामंती [दरबारी] संस्कृति पर इसमें कितनी करारी चोट की गई है।
अपना भारत भवन देखकर, भील बस्तर का यूँ कह गया
आप रहते हैं भोपाल में, यह हमारा ठिकाना नहीं
    ‘आप रहते हैं भोपाल मेंपंक्ति का व्यंग्य तथा यह हमारा ठिकाना नहींके पीछे जो लयात्मक संवेदनशीलता छुपी हुई है दरअसल वही रचना को एक जीवंत ऊर्जा प्रदान करती है।
जहाँ तक मुझे स्मरण है- मैंने सबसे पहले आपकी [ रमेशराज ] गजलें 'कथाबिम्ब' में पढ़ी थीं और मैं ही नहीं बल्कि अनेक पाठक उनसे प्रभावित हुए थे। इसी तरह दिल्ली से प्रकाशित एक महिला पत्रिका रमणीमें तीन शेरों वाली आपकी एक छोटी-सी ग़ज़ल पढ़ी थी और उसे पढ़ कर मैं गहरे तक अभिभूत हुआ था। तीन छंदों में वह बात पैदा कर दी गई थी जो किसी दूसरे कवि द्वारा तीस छंदों में भी नहीं हो पाती। कथ्य इतना साफ-सुथरा और बेवाक होकर उतरा था कि कुछ पूछिए ही मत।
शलभ श्रीराम सिंह की गजलें भी उतनी ही पैनी और बेवाक लगी। खासतौर से कथनमें प्रकाशित उनकी चार गजलें जिन पर व्यापक पाठकीय प्रतिक्रिया हुई। उनके ग़ज़ल संग्रह राहे ह्यातकी गज़लों के तेवर भी काफी तीखे हैं लेकिन लहजा चूंकि मुकम्मल तौर पर उर्दू शैली का है अतः उसमें कहीं से भी हिन्दीपनका एहसास नहीं होता। या यूँ कहें कि हिन्दी के सृजनात्मक लेखन से जोड़ने का कोई ठोस अथवा वायवीय औचित्य प्रमाणित नहीं होता।
आपने अपने पर्चे में अपने सोच के दायरे में जिन मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहा है, वे वामपंथी घोषणापत्रों में सैकड़ों बार रिपीट हो चुके हैं। हर जागरूक लेखक [ जिसके लेखन की प्रासंगिकता कायम है ] चाहता है कि शोषण के दुर्ग को ढहा दिया जाये। मुखौटे नोच लिये जायें, सामाजिक ऐतबार से घातक और विघटनकारी प्रवृत्तियों पर तेजी से हमला किया जाये। इन्सान को बेहतर तथा जागरुक बनाने की दिशा में कारगर पहल होनी ही चाहिये। ये तमाम बिन्दु हमारे लेखन को अनिवार्यतः रेखांकित करें ऐसे प्रयास तेज और तेजतर रफ्रतार में जारी रहने चाहिये।
बहरहाल अच्छा लेखन [अच्छे लेखन से तात्पर्य उस लेखन से है जो पिष्टपेषण की प्रवृत्ति से दूर होकर मानवीय मूल्यों तथा संवेदना की जमीन पर अपनी जड़ें फैलाता है] सामने आये। लेकिन वह एक खास मीटर तथा लहजे तक ही सीमित न रहे। बात तभी वन सकती है, जब उसका कान्टेन्ट ब्रांड हो। मेरी धारणा है कि निष्ठावान प्रतिभाएँ कुछ भी लिखें उसमें उनका रंग तो बोलता ही है और यही उनकी सृजनात्मकता की सही पहिचान भी है।

दरअसल सृजनात्मकता की शर्ते इतनी कठोर हैं कि केवल नाम परिवर्तनसे ही उस जमीन पर प्रतिष्ठत हुआ जा सके, यह मुश्किल दिखाई देता है। फिर भी आपके सदाशयी तथा कर्मठ प्रयासों के लिये अपने बधाई देना चाहता हूँ क्योंकि आपके भीतर मुझे वह सृजनात्मक ऊष्मा महसूस होती है जो उस जमीन पर पहुँचने के लिये बेहद जरूरी है जिसका उल्लेख अभी-अभी मैंने किया हैः बहरहाल...। 

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