Thursday, March 17, 2016

‘तेवरी’ प्रेमालाप नहीं + आदित्य श्रीवास्तव

|| तेवरी’ प्रेमालाप नहीं ||

+ आदित्य श्रीवास्तव 
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    दुनिया की महान कृतियाँ बागीही रही हैं। व्यवस्था के प्रति यह आक्रोश स्वाभाविक ही है। राजनीतिक समीकरण अब पूर्णरूप से व्यावसायिक सिद्ध हो चुके हैं। इसलिये मैं इसे अच्छी शुरुआत मानता हूँ। नवनीत-लेपकों और नपुंसकों की भी देश में कमी नहीं है। आलोचनाएँ खूब होंगी, खुशहाल पक्ष की ओर से अस्वीकृतियों/ नाराजगियों की आवाज भी गूँजेगी। नयी विधा की स्थापनार्थ, संघर्ष का मूल्य तो चुकाना ही पड़ेगा।
    परिस्थितियाँ दिन पर दिन बदतर होती जा रही हैं। चारों ओर वातावरण में घुटन, संत्रास, भ्रष्टाचार, अन्याय व्याप्त है। ऐसे समय में प्रेमालाप करना ठीक उसी भांति है, जिस प्रकार कोई अपनी झोपड़ी में आग लगने पर मल्हार गाये। मैं तेवरीकार रमेशराज की इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ।
तेवरी को सहज भाषा से उठाया गया है एवं इसमें चौपाई, दोहा, आल्हा, घनाक्षरी, सवैया आदि सभी छंद शामिल हैं। इसके अन्तर्गत ग़ज़ल की तरह कोई नियम एवं विधान नहीं है। आप अपनी बात सहज एवं स्वतन्त्र रूप से कहने में समर्थ हैं।
मैं यह भी कहना चाहूँगा कि इस सहजता के नाम पर कुछ लोगों ने ऐसी तेवरी भी लिखी हैं जो हास्यास्पद-सी मालूम होती हैं, जिनका कोई भी साहित्यिक स्तर नहीं मालूम पड़ता है। तेवरी में इसकी अधिक गुंजाइश हो गयी है।

काव्य की कोई भी विधा हो, जब तक उसकी भाषा बोधगम्य एवं अपीलिंग नहीं होती, वह जनमानस पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाती। साहित्य का कोई भी आन्दोलन तभी तक जि़न्दा रहता है जब तक कि उसके पीछे कोई निश्चित दिशा एवं गंतव्य होता है। तेवरीकारों को सजग रहने की जरूरत |  

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