Friday, March 18, 2016

भौतिकवाद के निकम्मेपन से तेवरी का उद्भव +राजकुमार ‘निजात’

भौतिकवाद के निकम्मेपन से तेवरी का उद्भव  

+राजकुमार निजात
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    तेवरी एक कविता है, मगर कविता तेवरी नहीं है। आज हिन्दी कविता जिस जगह, जिस स्थित में है, इसके अध्ययन के फलस्वरूप हमें ऐसा गौरव अनुभव नहीं होता, जैसा कि हमें होना चाहिए। कविता साहित्य की परिधि से निकलकर भौतिकवाद की ओर झुक गयी है। इसके लिये किसी प्रमाण की तह में जाने की आवश्कयता नहीं। भौतिकवाद से पनपे निकम्मेपन और सुविधापरस्ती ने हिन्दी कविता को दूषित कर दिया है। इस स्थिति ने जन्म दिया-तेवरी को। मगर तेवरी के उद्भव का यही मात्र कारण नहीं है।
तेवरी उन त्रासद स्थितियों की देन है जो समाज में भ्रष्ट आचरण, नैतिक पतन, कालाबाजारी व कुव्यवस्था आदि के रूप में व्याप्त है। यह आक्रोश की उग्रता गलत व्यक्तियों या वर्ग को साहित्यक भाषा में डाँटती ही नहीं, फटकारती भी है और आवेश में उनके मुखौटे तक नोंच डालती है।
पिछले कई वर्षों से कविता का तेवरी-आन्दोलन किसी न किसी मंच से मुखरित होता रहा है और तभी से यह प्रश्न उठते रहे हैं कि तेवरी, काव्यविधा ग़ज़ल का ही एक रूप है। इस भ्रान्ति को व्यावहारिक रूप से हल करने के लिये अनेक प्रकाशन सामने आये है। डॉ. देवराज व देवराज की पुस्तक तेवरीकी भूमिका में तेवरी को जिन सारगर्भित शब्दों में परिभाषित किया गया है, अर्थपूर्ण है।
चूंकि ग़ज़ल विगत दो तीन दशकों से जन-जन की जिस प्रकार चहेती बनी, उसे तेवरी प्रणेताओं को तेवरान ढँग से खारिज करने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प न था। यूँ तो तेवरी को मूर्त रूप में आने से पूर्व भी पंडित रामप्रसाद बिम्सिल’, अशपफाक उल्ला खां, साहिर, कैफी आजमी, फैज आदि अपने राष्ट्रवादी चिन्तन को ग़ज़ल रूप में कहा, किन्तु इससे ग़ज़ल अपना अर्थ खोती चली गई। अतः यह महसूस किया जाने लगा कि आक्रोश की इस साहित्यिक जुबान की अपनी ही एक विधा की जरूरत है, जो अपने नाम के अनुरूप हो। तेवरीशब्द ने इस आक्रोशमय अभिव्यक्ति को शीर्षक रूप में हल करते हुए सार्थक कर दिया।
आज काव्य की दूसरी विधाएँ जिस पथ से गुजर रही हैं, ऐसा लगने लगा है कि आधुनिक समाज कविता नाम से उकता गया है। एक तो फूहड़ हास्य-व्यंग्य ने कविता को इतना भ्रमित कर दिया है कि कुछ कालीदासी [कालीदास नहीं] लोग हास्य कविता को ही कविता मानने लगे हैं। ऐसा यहाँ [सिरसा] हुआ भी। एक बार कवि सम्मेलन में हँसने-हँसाने को ही कविता कह डाला। साहित्य के लिये निस्संदेह यह भावना-स्वप्न खतरनाक है।
कविता की अन्य विधाएँ इस अर्थप्रधान युग में अपने सार्थक मूल्य खो रही हैं  तो चिन्ता का विषय बनना स्वाभाविक ही है। तेवरी विधा कविता की एक मशाल लेकर जब से अवतरित हुई है, लोगों ने-समाज ने एक बार पुनः पुस्तक के पन्ने पलटने शुरू कर दिये हैं, क्योंकि कविता-साहित्य में अब तेवरी ही मात्र ऐसी विधा रह गयी है, जो ग़ज़ल के समान्तर चल सकती है और कवि के क्षोभ, कुंठा, विद्रूपता, संत्रास, आक्रोश, दमन, उत्पीड़न, हताशा, असंतोष व विद्रोह को सही अभिव्यक्ति दे सकती है। युवा कवि वर्ग [हृदय से युवा] जब सामाजिक विक्षिप्तावस्था का वर्णन करता है तो दिशा-देश सम्बन्धी ऐसे प्रश्न भी सामने आ जाते हैं, जिनसे सिद्धान्तहीन, भ्रष्ट समाज को उन्हीं की भाषा में झँकझोरा जा सके, लेकिन सभ्य भाषा का परित्याग न कर बैठे।
तेवरी गाली नहीं देती, शब्द-वाण चलाती है, उस समाज पर जो कानून और अधिकारों का अनाधिकृत  रूप से प्रयोग करते है। जन-भावना को ठेस पहुँचाते हैं। राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए संविधान के विपरीत जाते हैं। तेवरी उनके खिलाफ पैने हथियार का काम करती है। देवराजकी भी यह मान्यता है कि नयी परिस्थितियों में कविता में नया व सार्थक परिवर्तन आना चाहिए। तेवरी इस सार्थक परिवर्तन का ठोस आधार है
तेवरी शब्द के अन्तर्गत जिन व्याख्याओं की अभिव्यक्ति की गयी है, यह व्याख्या इसकी पृष्ठभूमि से की गई है। स्वयं तेवरी शब्द अपने वक्तव्य को इतने विस्तृत रूप से सार्थक नहीं करता। मगर यह मानने में संकोच नहीं है कि तेवरी-शब्द भावना से जुड़ा है। यह साहित्यिक आन्दोलन एक शोषण मुक्त समाज की संरचना को न केवल अपने अन्तर्मन की पीड़ा में अनुभव ही कर रहा है, बल्कि ऐसे समाज की कल्पना की प्रयोजना से, मौलिक भाव से आबद्ध भी है। मैं समझता हूँ समाज-विरोधी  तत्त्वों को मूल रूप से नष्ट करने में यह आन्दोलन व्यावहारिकता के शिष्ट दृष्टिकोण की वैधानिकता लेकर चले। अभी यह आन्दोलन जन-जन के आक्रोश का कंधा नहीं बन पाया है।
तेवरी को  एक लम्बे पथ से गुजरने की प्रतीक्षा है। अतः यह कहना समयपूर्व है कि प्रत्येक शोषित एवम् सही व्यक्ति की आवाज को इसका वरदहस्त मिल चुका है। मैं समझता हूँ, तेवरी को आखिर मानवतावादसे तो जुड़ना ही चाहिए। वादसे अभिप्राय यहाँ स्पष्ट है, तेवरी के क्रान्तिकारी विचारों को प्रत्येक तेवरीकार, तेवरी समर्थक, बलपूर्वक एक आवश्यकता मानता है। वर्तमान व्यवस्था का परिवर्तित स्वरूप हमें ठीक वैसे ही तय करना होगा जैसी तेवरी की व्याख्या तय है।

तेवरी का शिल्प, ग़ज़ल का शिल्प ही माना जाना चाहिए। बेशक यह सत्य है कि इस शिल्प की विषय सामग्री मौलिक है। उपरोक्त भावों से, जो कि परिचर्चा के प्रारूप के अन्तर्गत प्रदर्शित किये गये हैं, मैं बेवाक कह रहा हूँ कि तेवरी का यह भावात्मक आन्दोलन, आक्रोश की परिधि  को तोड़कर, अशिष्ट व भद्दी भाषा के गूढ़ प्रयोग के बीच उन्माद की स्थिति धरण न कर ले। हमें सभ्य रहकर ही अपनी अभिव्यक्ति करनी चाहिए। तभी एक सभ्य समाज की रचना को सार्थक कर सकेंगे।

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