‘तेवरी’ अपना काव्यशास्त्र स्वयं रच रही है
+ डॉ. कृष्णावतार
‘करुण’
........................................................................
तेवरी सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक अथवा अन्य किसी भी प्रकार की कुव्यवस्था के विरुद्ध उठाया जाने वाला असन्तोषजन्य आक्रोश-मय तेवर है, जो विशेष शब्दावली के माध्यम से पाठक को भोगे हुए क्षणों की वेदना का अनुभव करा देता है।
तेवरी सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक अथवा अन्य किसी भी प्रकार की कुव्यवस्था के विरुद्ध उठाया जाने वाला असन्तोषजन्य आक्रोश-मय तेवर है, जो विशेष शब्दावली के माध्यम से पाठक को भोगे हुए क्षणों की वेदना का अनुभव करा देता है।
तेवरी जमीन
से जुड़कर चलती है और उसका हर सोच अपनी जमीन के लिये है, यथार्थवादी है।
तेवरी बेलाग किन्तु सच्ची और स्वास्थ्यकर बात कहने में
विश्वास रखती है और उसे प्रयोग भी करती है, चाहे बुरी
लगे या भली, ठीक कबीर की तरह।
तेवरी व्यंग्य से भी आगे बढ़कर चुनौती देती है जो कुव्यवस्थामय
स्थितियों, कुरीतियों, अन्ध्विश्वासों
का चेहरा नोच लेना चाहती है। तेवरी इस चुनौती से भी आगे बढ़कर सीधे -सीधे ;सीधी उँगली को टेढ़ी कर आँख निकालने की मुद्रा
अपनाती हुई, तीव्र प्रहार करती है। तेवरी किसी भी प्रकार की ‘दुरभिसन्धि को नहीं स्वीकार करती है। उसके अनुसार तो-
जब तक जिए हैं सिर्फ अपनी शर्त पर जिए।
समझौते पर लगें, वो अँगूठे नहीं हैं हम।।
तेवरी किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता, वाद अथवा खेमे में बँधकर नहीं चलती, क्योंकि यह आदमी
की, आदमी के लिये, आदमी द्वारा रची गयी
कविता है।
+ 'तेवरी' के साथ जीते हुए क्षणों में हास्य अथवा देहिक शृंगार के लिये रत्तीभर भी स्थान
नहीं है।
+ तेवरी क्रान्ति की बात करती है, बारूद का आटा बाँटने का सन्देश देती है, किन्तु यह क्रांति
आदमी के विरुद्ध नहीं, कुव्यवस्था के विरुद्ध है |
‘तेवरी’ अपना काव्यशास्त्र स्वयं रच रही है--
ध्यातव्य है-तेवरी भाषा, छन्द, अलंकार, मुहावरे, प्रतीक सभी स्तरों पर स्वतन्त्र इयत्ता की स्वामिनी है। अतः ग़ज़ल से उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता है।
तेवरी की भाषा अत्यन्त परुष और तीखी होती है। उसका शब्द-शब्द अग्निवाण होता है जो कुव्यवस्था के रावण को नष्ट करने के लिये सदा उद्यत
रहता है।
’
तेवरी भीड़ में से शब्दों को उठाती है और भीड़ के दिलो-दिमाग में बो देती है। जबकि ग़ज़ल अपने निजी अर्थ एवं कथ्य दोनों ही दृष्टियों
से भिन्न है।
ग़ज़ल में शृंगार प्रधान होता है और उसका प्रत्येक शे’र अपना अलग अस्तित्व रखता है, जबकि तेवरी दैहिक शृंगार
के विरुद्ध है और इसका प्रत्येक तेवर मूल विषय से किसी भी प्रकार कटकर नहीं चलता है।
ग़ज़ल में मक़्ता-मतला का अनुशासन मानना पड़ता है, जबकि तेवरी में ऐसा
करना आवश्यक नहीं है। ग़ज़ल के काफिया-रदीफ तेवरी की तुकों से
भाव में तथा भाषा में भिन्नता लिये हुए होते हैं। अच्छी तेवरी की तुक ग़ज़ल के काफिया-रदीफ के लिए अनुपयुक्त हो सकते हैं, अपनी निजी विशेषता
के कारण।
तेवरी में मुहावरों तथा प्रतीकों का विशेष महत्व है, इन्हीं से तेवरी सप्रमाण है। तेवरी के प्रतीक ऐसे हैं जो जनसामान्य की समझ
में तुरन्त आ जाते हैं और उसे वस्तुस्थिति का ज्ञान करा देते हैं। ये प्रतीक राजनैतिक,
नौकरशाही, प्राकृतिक, दैनिक
व्यवहार सम्बन्धी , वैज्ञानिक व तकनीकी, ऐतिहासिक व पौराणिक, वातावरण सम्बन्धी, शरीर व रोग संबंधी, स्थान सम्बन्धी , पशु-पक्षी सम्बन्धी तथा अन्य विविध प्रकार के हैं।
जहाँ तक रस की बात है तो यह आवश्यक नहीं कि हम प्राचीन
सिद्धान्तों को ही अपना उपजीव्य स्वीकार करें, अपना रास्ता स्वयं तलाश न करें। रस-सिद्धान्त की कसौटी
पर तो नई कविता भी अस्तित्वहीन और निरर्थक सिद्ध हो जाती है। सच तो यह है कि तेवरी
किसी पाणिनि या पतंजलि के हाथों की अष्टाध्यायी नहीं बनना चाहती, वह किसी मम्मट या पण्डितराज का काव्यशास्त्र भी नहीं बनना चाहती। 'तेवरी' अपना व्याकरण भी स्वयं रच रही है और अपना काव्यशास्त्र
भी।
+ तेवरी और ग़ज़ल शिल्प के स्तर पर कहीं
भी एक दूसरे का न तो विरोध है और न कोई साम्य। दोनों अलग-अलग
विधाएँ हैं। जो लोग तेवरी को ग़ज़ल मानते हैं, वे भारी भूल करते
हैं। वे उदारता एवं विवेक का साथ छोड़ रहे हैं।
............................................................................................................................
+ डॉ. कृष्णावतार
‘करुण’
No comments:
Post a Comment