|| 'तेवरी' सूडो
क्रांति नहीं ||
+ जगदीश कश्यप
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जिस वक्त ‘नाटक’ से ‘एकांकी’ की पहचान अलग रूप में स्थापित करने की
प्रक्रिया चल रही थी, तब एकांकीकारों को नाटकविदों का कोपभाजन होना पड़ा था। श्री
विष्णु प्रभाकर इस पीड़ा को भलीभांति जानते हैं। जब ‘लघुकथा’
की पुर्नस्थापना की प्रक्रिया की शुरुआत हुई, तब
प्रतिष्ठित सम्पादकों एवं लेखकों ने इस कार्य को कुंठित और असपफल लोगों का प्रयास
बताया। सारिका 1972 ;दिसम्बरद्ध पृष्ठ 7 पर देवेन्द्र मोहन की एक टिप्पणी छापी कि लघुपत्रिकाओं के सम्पादक सूडो
क्रान्तिकारी हैं और उनके हाथों में साहित्य खिलौने से अधिक कुछ नहीं। वस्तुतः ये
मारकर मरने लिये पैदा हुए हैं आदि-आदि। आज यही तेवरी के बारे
में कहा जा रहा है |
उन दिनों लघुपत्रिकाओं ने ही लघुकथा-उत्थान का बीड़ा उठाया था। देवेन्द्र मोहन की उस टिप्पणी का भारत-भर में इतना विरोध हुआ कि कमलेश्वर को हारकर 1973 में
एक लघुकथा खण्ड ही छापना पड़ा था और वह लघुकथा के सरंक्षक का लेबल पा गये। खैर---जब ‘गीत’ से ‘नवगीत’ निकला, तब बड़ी अजीब-अजीब बातें कही गयीं कि ये नवगीत क्या होता है? पर
आर.सी. प्रसाद सिंह व नचिकेता ने इस
बात की कहाँ परवाह की और ‘अन्तराल’ पत्रिका
के माध्यम से नवगीत को प्रतिष्ठत कर दिया। मेरा मानना है की तेवरी भी हर संकट से
उबरेगी |
‘हिन्दी ग़ज़ल’ का पिता दुष्यन्त को कहा जाता है और
उनकी शैली में सूर्यभानु गुप्त जैसे लेखक प्रसिद्धि पा गए। तब से ग़ज़ल ने नये-नये तेवर बदले और एक तेवर ‘तेवरी’ के रूप में आया, जिसे ग़ज़ल वाले ग़ज़ल के विरुद्ध
षडयंत्र मान रहे हैं।
तेवरी की अलग पहचान बताने में तेवरी-पक्ष ने श्रम किया है और तेवरी की रचना-प्रक्रिया की
टैक्नीक भी बयान की है, पर काफी लोगों ने इसकी खिल्ली उड़ाई
है, जैसा कि लघुकथा की टेक्नीक बयान करना मूर्खता लगती है,
इन लोगों को।
अगर तेवरी में दम होगा तो इसे स्थापित होने से कौन
रोक सकेगा और अगर इसके अनुयायी निम्नस्तर पर ही सोचते रहेंगे, तब इसके विकास से कैसे सहायता मिलेगी? जरूरत इस बात
की है कि तेवरी पर ही जिन लोगों को लड़ना दिखाना है, वे पहले
आपस में ही इसके अंग-प्रत्यांगों पर कोई समझौता कर लें।
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