तेवरी-साहित्य : दायित्व कुछ और भी हैं
+ पंकज शर्मा
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अभी तक सुख ही सार्वजनिक हुआ करते थे, परन्तु अब दुःख
भी सार्वजनिक होते जा रहे हैं। सभी को सभी के दुःखों का एहसास है। मगर यह इसलिए नहीं
कि कोई किसी के दुःख बाँट लेने की राजी है, वरन् इसलिए कि हर
कोई दुःखी है और फिर साहित्य तो समाज और समय का दर्पण होता ही है। इस कारण वह भी दुःखी
है। वैसे तो साहित्य का जन्म ही विरोध और दुःख स्वरूप [बाल्मीकि द्वारा] हुआ था,
लेकिन आज यह कुछ ज्यादा ही मुखर और कटु हो गया है। साहित्यकार भी इन
दुःखों से अपना साक्षात्कार कर रहा है। साहित्य की हर विधा में रचनाएँ जैसे तलवार बन
उठी हैं। यहाँ तक कि कविता की कोमलतम विधाएँ भी दुःखों में तप रही हैं। असल में कहना
यह है कि कथ्य में भारी परिवर्तन आये हैं और ये कथ्य आम आदमी की जमीन के हैं। तेवरी-आन्दोलन
भी इसी क्रम का परिचायक है |
केवल सपाटबयानी कविता के प्रतिष्ठित अस्तित्व को
खतरा तो है ही, साथ ही यह साहित्य के कर्तव्य को अधूरा
छोड़ देती है। क्या दुःखों को उद्घाटित करना ही साहित्य का मात्र कर्तव्य है?
दुःख के कारणों की तलाश और उनको नष्ट करने वाली व्यवस्था खड़ी करने में
भी तो साहित्य का कुछ कर्तव्य है। आज साहित्य के जरिए जिन सवालों को उठाया जा रहा है,
उनका जवाब भी तलाशना आवश्यक है। क्या तेवरी - आन्दोलन उन जवाबों को तलाश
रहा है ?
आज जब साहित्य के माध्यम से कहा जा रहा है कि नारे
झूठ हैं, अर्थात नारों में सत्य का दम और निर्माण की झलक
नहीं है, तब इस बात का उद्घाटन करती नारे रूपी कविता झूठ नहीं
है? कविता को क्रियात्मक पक्ष देना आवश्यक है, जैसा कि कविता के जन्म के समय ही बाल्मीकि ने स्वयं अस्त्र त्यागकर दिया था।
क्या तेवरीकार इस पहलू पर सजग हैं ?
आज सिद्धांत का राग ही ज्यादा अलापा जाता है, कर्म में विश्वास कम का ही है। आदमी के भीतर के खोए हुए आदमी के खोये जाने
की चर्चा के बाद उसे तलाशना भी साहित्य का दायित्व है। पर आज साहित्य की सपाटबयानी
इस कदर बढ़ रही है कि समाज के घटनाक्रम को कुछ चूरन-चटनी मिलाकर
लिखा जा रहा है। इसमें साहित्यकार का अपना सोच तो कुछ है ही नहीं | तेवरी पर भी सपाटबयानी का खतरा मंडला रहा है |
साहित्य के किसी भी आन्दोलन के लिए चाहिए कि वह
पहचान की लड़ाई के दलदल में न फँसे, वरन् आन्दोलन के मुख्य
ध्येय [जन-जन की आवाज बने या जन-जन को रास्ता
दिखाए] को छूने का निरंतर प्रयत्न करे। साहित्य को चिरजीवी बनाने के लिए उसे आदमी से,
उसके सवालों से, सवालों के जवाबों से, जोड़ना होगा, हमारे सामने कबीर ओर तुलसी के उदाहरण हैं,
उन्होंने सामाजिक पतन के मुद्दों को उठाया ही नहीं वरन् उसके हल भी सुझाए।
तेवरी के संदर्भ में कविता को पाठक में उसकी अपनत्व की भावना और उसके अधिकारों की लड़ाई
के लिए चेतना जगानी होगी।
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