तेवरी के तेवर जनाक्रोश के हैं
+यशपाल वैद
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‘तेवरीपक्ष’ जिन मुद्दों को उभारता है, उनका सही विश्लेषण भी सार्थक-सृजन के तहत हो पाया है।
अब तक कविता के इस अछूते प्रारूप पर प्रकाशित चार अंक पढ़ जाने के बाद तेवरी-कविता पर आस्था हो जाना स्वाभाविक क्रिया है। यूँ पहले भी अपनी राय यही रही
है कि यह तेवर जनाक्रोश के हैं, जिनमें यथार्थ का सपाट बयान होते
हुए भी एक लय है, जो इसे साहित्यिक राय दे पाती है, जिसे न ही सपाटबयानी, न ही नग्न यथार्थवाद या प्रकृतिवाद
कहा जा सकता है।
तेवरी में सच्ची तड़प है, आक्रोश है, चारों ओर के अन्याय, भ्रष्टाचार का युगान्तर विस्फोटक ऑपरेशन है। व्यवस्था में सामाजिक और राजनीतिक
सही बदलाव हो, इसके लिए पीडि़त-दलित व्यक्ति
गालियाँ दिये बिना चुप नहीं रह सकता है, लेकिन तेवरी-पक्ष गालियाँ ही तो नहीं, यह साहित्यिक दस्तावेज है।
एक जिम्मेदारी का सही जायजा है, जिसमें गरीब, मजबूर, लाचार, शोषित आदमी की पुकार
है और उसकी ललकार भी है, जो पीड़ाग्रस्त है।
यूँ ‘तेवरी’
को किसी भी खेमे या वाद से नहीं जोड़ा जा सकता, खासकर, तब तक, जब तक कि ये स्वाभाविक
सत्य-आक्रोश, बनावट का मुखौटा न पहने,
न बाहर न भीतर। तेवरी कविताएँ [यूँ ग़ज़ल कह लीजिए] जोशीला खून है-जो जनक्रांति के लिए नये तेवर देता है- वादों-विचारधाराओं-जीवनदर्शन से अलग-सर्वहारा
व्यक्ति का आक्रोश भोगा हुआ यथार्थ, आँखों देखी, कानों-सुनी बात का फलसफा। इसमें यह शक्ति है,
जो दबी-घुटी हँसी और दबी-मूरत को मौत के आगोश से छुड़ाने का दम भर सकती है।
तेवरी ग़ज़ल से इस मायने में अलग पड़ जाती है कि
इसमें सोज अपने ढँग का है-जिसका एहसास एक चीखो-पुकार का सिलसिला है। व्यापक रूप में आप इसे कथित रूप से ग़ज़ल से ही जोड़
लें -पर यह बड़ी अजब बात है | मैं तेवरीकारों
की मान्यताओं और अवधारणाओं से सहमत होता दिखाई देता हूँ-यह भी
‘तेवरी’ की सहज अभिव्यक्ति के पक्ष में
ही जाता है। प्रतिक्रिया अनुकूल है-आने वाला वक्त इसका सही जायजा
ले पाये-शायद।
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