‘तेवरी’
शब्द ही अपने आप में अपनी परिभाषा
-डॉ. हरिवंशप्रसाद शुक्ल
‘मधुकर’ ‘झंझट’
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तेवरी आन्दोलन की पत्रिका ' तेवरीपक्ष ' और ‘सूर्य का उजाला’ समाचार पत्र के माध्यम से श्री रमेशराज
की तेवरियों’ की प्रकाश-किरणें लगभग सभी
हिन्दी साहित्य के रचनाकार, साहित्यकार तथा हिन्दी प्रेमियों
के समक्ष अपना-स्वरूप प्रकट कर चुकी हैं। श्री रमेशराज का गम्भीर
चिन्तन, अनुभव की प्रामणिकता, दृढ़ संकल्प
शक्ति तथा साहित्येतिहास का गम्भीर तत्त्व-निवेशी अध्ययन हिन्दी
काव्य-रचना के क्षेत्र में नया संदेश लेकर आया है।
तेवरी के रूप में उन्होंने जिस नये काव्य-रूप की स्थापना की है, उसका व्यापक एवं गम्भीर चिंतन
का क्रम देखकर लगता है कि हिन्दी के प्रबुद्ध वरिष्ठ साहित्यकारों एवं रचनाकारों ने
इस नये प्रयास की सराहना की है। मेरा मानना है कि ‘तेवरी’
शब्द ही अपने आप में अपनी परिभाषा, स्वरूप तथा
स्वतंत्रा अस्तित्व-बोध् का परिचय दे चुका है। वस्तुतः ‘तेवरी’ अर्थात् ‘तेवर’ वाली, अभिव्यक्त की मुद्रा तथा कथन की भंगिमा-एवं वैचारिक ओजस्विता से परिपूर्ण रचनात्मक नव चेतना का प्रतीक है।
अभिव्यक्ति की भंगिमा, व्यजना का स्वरूप तथा दृश्य जगत की युगीन यथार्थ को आन्तरिक बोध शक्ति का अनुभव
और चिन्तन की गहराई से उद्भूत होकर उपस्थित होती है, जिसमें युगीन
विसंगतियों तथा-मानव जीवन की अस्तित्व के संकट से उत्पन्न प्रतिक्रियास्वरूप
आक्रोश, क्रोध आर्थिक एवं सामाजिक सरोकारों के यथार्थ चित्र हमें
उद्वेलित एवं संत्रस्त जीवन के विविध पक्ष को साकार करते हैं। ‘तेवरी’ में अभिव्यक्ति की भंगिमा ही मुख्यरूप से उसे
काव्य-रचना की सतत् जीवन की विविध पक्ष को साकार करते हैं।
‘तेवरी’ में अभिव्यक्ति की भंगिमा ही मुख्यरूप से उसे
काव्य-रचना की सतत् प्रवाहवान धारा में नया स्थान प्रदान करने
की व्यापक योग्यता रखती है। हिन्दी के विकास की यात्रा में ऐसे कितने पड़ाव आये हैं,
जिसमें वैचारिक दृष्टि से जनरुचि के अनुकूल नये मोड़ अपने नये रूप से
विकसित हुए हैं। हिन्दी का काव्य-शास्त्र, संस्कृत से प्रभावित रहा है जिसमें काव्य के स्वरूप, उसके कथन की भंगिमा तथा उक्तिवैचित्र एवं मानव-भावों के सघनतम स्वरूप को शब्द-वाणी प्रदान करने का सफल प्रयास किया गया है। यह सर्वविदित सत्य है कि संसार
की किसी अन्य भाषा में ऐसा व्याकरण नहीं मिलेगा जैसा संस्कृत एवं उसकी पुत्री हिन्दी
में उपलब्ध है। प्रत्येक शब्द शोधयुक्त अपनी प्रकृति को स्वयं कह देता है एवं मानव
शरीर में उसकी उत्पत्ति का उद्गम स्थल निर्धारित है। अस्तु! तेवरी
में भी इसी प्रयास एवं सत्य को देखना चाहिए।
मैंने अपने पिछले एक पत्र में ‘तेवरी’ पर विचार करते हुए समय की माँग मानकर हिन्दी में काव्य-रचना में किये गये अन्य पूर्ण प्रयोगों की ओर संकेत कर कहा था कि श्री रमेशराज
द्वारा इस ओर किया गया प्रयास भी अपनी मान्यता और मूल्यांकन एवं एक स्वंतत्र कार्य
विधा की अपेक्षा रखता है। ‘तेवरी’ में रचनात्मक
ओजस्वी चेतना के साथ ही उसमें वैचारिक गहराई तथा मानव-जीवन के
उच्चतम् आदर्श, उद्देश्य तथा उसकी अध्यात्मिक उपलब्धि एवं सौन्दर्यबोध
का स्वतंत्र चिंतन उसे निश्चित ही अपना गौरवपूर्ण प्रतिष्ठित पद प्रदान कर सकता है।
गेय होकर भी उसे अश्लीलता एवं माँसल यौन विकृतियों से दूर रहना अधिक श्रेयस्कर है।
‘तेवरी’ में हाइकु का प्रयोग उसके व्यापक स्वरूप को ही
प्रकट करता है। इसी प्रकार षडपदी आदि छंद-विधान उसके नवीनतम तेवर
को ही प्रकट करते हैं। साहित्य में हास्य-व्यंग्य की एक स्वतंत्र
विधा लगभग सभी भाषाओं में पायी जाती है। हिन्दी
का हास्य-व्यंग्य साहित्य बहुत ही समृद्ध है।
परम्परा से प्राप्त काव्य-शास्त्र की रुढि़ग्रस्त मान्यताओं को भी तेवरी की शिल्पगत विशेषताओं ने जिस
विवेकशील कौशल से स्वीकार किया है, वह इस विधा को निश्चित ही
नया रूप प्रदान करने में पूर्णतः सक्षम सिद्ध होगी। तेवरी की तुलना ग़ज़ल से करना हास्यास्पद
है। ग़ज़ल एक विदेशी मान्यता की रचनात्मक विधा है जबकि तेवरी स्वदेशी वैचारिकता एवं
अध्यात्मिक चेतना की स्वतंत्र विधा है।
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